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प्रास्ताविक
शास्त्रोमां 'चत्तारि परमंगाणि' कही मनुष्यपणानी प्राप्ति दुर्लल गणावी छे. देवगति प्रचुर सुखसामग्रीवाळी होवा छतां तेने दुर्लभ न गणावी पण मनुष्यगतिने दुर्लभ अटला माटे गणावी के आ गति परमोच्चस्थान - मोक्षप्राप्ति माटे अनन्य कारणरूप छे. जीवने आत्मविकासना सर्व पगथार-गुणस्थानकोनी प्राप्ति करवी होय तो आ गतिमां थई शके छे. देव नारकमां चारगुणस्थानक अने तियंचमां पांच गुणस्थानकोथी आगळ वधी शकातुं नथी. विवेक, तप, त्याग अने आत्मोन्नतिनां सर्व साधनो अहीं जेटलां नथी. नरकमां क्षेत्रजन्य अने बीजां परस्परोदारित दुःखो अटलां बधां छे के त्यां कोई आत्मोन्नतिनो अवकाश नथी. तियंचगति पराधीन जीवन अने विवेक विनानी छे. जेथी त्यां पण आत्मविकासनुं ओछ्रं स्थान छे. मानवभवज ओक ओवो भव छे के ज्यां बधी अनुकुळता मळवानो संभव छे.
क्षेत्र अने संस्कारने लई मानवभवमां पण आत्मविकास माटे अनेक जातनी प्रतिकुळता होय छे. अत्यंत उष्ण प्रदेशो, जंगल अने खीण प्रदेशो, दरियाकांठा अने टापुओ, आ बधामां ते ते क्षेत्रने अनुसरी खोराक, रहेणी-कहेणी अने जीवननुं अवुं घडतर होय छे के ज्यां आत्मविकासनो कोई विचार ज न आवे. आवा आत्मविकास शून्य प्रदेशोने शास्त्रे अनार्य प्रदेश कह्या छे.
मानवभवनी प्राप्ति से जीवने दुर्लभ वस्तुओनी प्राप्ति पैकी एक छे तेमज जे प्रदेशमां धर्म अने नीतिना संस्कार होय, जे प्रदेशनुं वातावरण आत्मविकास माटे अनुकुळ होय ते आर्य देश. आ आर्य देशनी प्राप्ति अ पण जीवनमां दुर्लभ वस्तुनी प्राप्ति पैकीमां एक छे. आ भारत आर्य देश छे. आ देशना जंगल, पर्वत, खीण, गामडुं के शहेर ज्यां नजर नांखशो त्यां बधे कोई ने कोईपण रीते धर्म अने नीतिना संस्कारनो आविर्भाव छे. परमात्मानी उपासना, परभवनो भय, मानवजीवननी | अनित्यता अने जीवनमां कोई पण उपास्य तत्त्वनी उपासना भारतना खूणे-खूणे पथरायेल छे. तेथी ज भारतनुं प्रत्येक गामडुं, प्रत्येक जंगल के पर्वत कांई ने कांई गीत, के पत्थर या वृक्षना थड उपर सिंदुर ढोळी देव-देवीना आरोपण द्वारा पोतानी अनित्यता पामरता जाहेर करी तेनी उपासना करे छे.
आम करोडो वर्षथी आ भूमि धर्म संस्कारथी प्लावित छे. अने आ धर्म संस्कारने सदा पल्लवित राखनार कोई | ने कोई संत, महंत ओछी के वधु शक्तिशाळी दरेक जग्याओ पथरायेला छे. आथी ज भारत से सदा संतोनी भूमि रही छे. राजा, महाराजा, श्रेष्ठी, सामंत के विद्वानो अनेक जातनी पौद्गलिक सुविधा जीवनमां होवा छतां ते हरहमेशा परभवनी विचारणा करता आव्या छे. अने तेथी ज भारतमां राज्यपाट अने वैभव छोडी तपोवननो आशरो लेनारा अनेक राजवीओ नीकल्या छे. करोड़ोनी संपत्तिने छूटे हाथे दान देनारा श्रेष्ठीवर्यो नीकल्या छे अने तत्त्वगवेषणा पाछळ ठेर-ठेर घूमी सत्यनी शोध करनारा विद्वानो भारतमां पाक्या छे. आम भारतनी केवल औहिक सुख पाछळनी दोट नथी पण पारमार्थिक सुख पाछळ तेनुं चिंतन सदाकाळ छे.
आ पारमार्थिक सुखनी गवेषणाने लईने भारतमां अनेक धर्मो नीकल्या अने ते ते धर्मोओ कोई ने कोई सिद्धांत स्थिर करी तेनी द्वारा आचार विचारनुं वर्तुळ स्थिर कर्यु.
आ अनेक जातना धर्मो - विचारोनुं वर्गीकरण ते षड्दर्शन छे. आ छ दर्शननो समन्वय अगर समग्र धर्मनो समन्वय ते जैन दर्शन छे. आथी ज आनंदघनजी महाराजे नमिनाथ भगवानना 'षड्दर्शन जिन अंग भणी जे' स्तवनमां जैनदर्शनमां बधां दर्शन समाई जाय छे ते जणाव्युं छे. आ समन्वय दृष्टिना प्रतापे ज भगवान पासेथी 'उप्पन्ने ई वा, विगमे ई वा, धुवे ई वा' आ त्रण त्रिपदीने विस्तारी गणधर भगवंतोओ द्वादशांगीनी रचना करी छे.
आ द्वादशांगी चार अनुयोगमय छे. द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, कथानुयोग अने चरणकरणानुयोग.
कर्मनुं स्वरूप तेनी वर्गणा, बंध, उदय, उदीकरण, सत्ता, करणो विगेरे सूक्ष्मातिसूक्ष्म षड्द्रव्यनी विचारणा ते द्रव्यानुयोग छे.