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टकराने से बचाकर यथार्थ दिशादर्शन करने वाले महाप्रकाश स्तंभ है; जो उसे मोक्ष के तट तक पहुँचने में सहायक होते
इस विशालकाय ग्रंथराज की रचना में निमित्त बने थे-चौलुक्यवंशभूषण परमार्हत श्रीकुमारपाल नरेश। राजा योगविद्या के अतीव जिज्ञासु थे; उन्होंने तत्कालीन योगविद्या पर अनेक ग्रंथों का पारायण किया था, किन्तु उनका मनःसमाधान नहीं हुआ था। अतः आचार्यश्री ने नृप कुमारपाल के अत्यंत अनुरोध के कारण इस योगशास्त्र की रचना की। | इस ग्रंथराज का प्रतिदिन स्वाध्याय करने से राजा जैनदृष्टि से योगविद्या का विशेषज्ञ हो गया
गुजरात को अहिंसा-प्रधान एवं धर्ममय बनाने में पूज्य आचार्यश्री का बहुत बड़ा हाथ रहा। कुमारपाल राजा आपका परमभक्त था, फिर भी आपने अपनी सुख-सुविधा के लिए उससे कोई याचना नहीं की। आपकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। काव्य, छंद, अलंकार, व्याकरण, नीति, योग, इतिहास, कोश, न्याय, स्तोत्र, भक्ति, प्रमाण आदि कोई | भी विषय नहीं छोड़ा, जिस पर आपने अपनी लेखनी न चलाई हो। योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति, द्वयाश्रय काव्य, अभिधानचिंतामणि, प्रमाणमीमांसा, अनेकार्थसंग्रह, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, सिद्धहैमशब्दानुशासन, लिंगानुशासन, छंदोऽनुशासन, काव्यानुशासन, महादेवस्तोत्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका (स्तोत्र), अयोगव्यवच्छेदिका, वीतरागस्तोत्र, प्राकृतव्याकरण, हैमधातुपरायण आदि आपके रचे हुए विशालकाय ग्रंथ है। इस तरह स्वपर-कल्याणसाधना के साथसाथ आपकी साहित्य-साधना भी बेजोड़ रही है।
आपके गुरुदेव आचार्यश्री देवचंद्रसूरि थे। एक बार विहार करते हुए आचार्यश्री धंधुका पधारें। उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए पाहिनी (हेमचंद्राचार्य की माता) भी अपने पुत्र चांगदेव (आचार्यश्री का गृहस्थावस्था का नाम) को लेकर उपाश्रय में आयी हुई थी। आचार्य श्री देवचंद्रसूरिजी ने चांगदेव की विलक्षण आकृति, लक्षण एवं चेष्टाएँ देखकर भविष्य में उसके संघ के उद्धारक एव सर्वशास्त्रपारंगत होकर स्वपरकल्याणकारक होने का संकेत किया और उसकी माता से चांगदेव को सौंपने का विशेष अनुरोध किया। माता ने पहले तो आनाकानी की; लेकिन परम उपकार समझकर चांगदेव को सहर्ष सौंप दिया। बाद में उसके पिता श्रीचाचिंग सेठ(मोढ़वणिक्) आचार्यश्री के पास कर्णपुरी पहुँचे, आचार्यश्री के साथ बहुत तर्क-वितर्क के बाद उनसे प्रभावित होकर चाचिंगसेठ ने चांगदेव की दीक्षा देने के लिए सहर्ष अपनी अनुमति दे दी। लगभग ८-९ वर्ष की उम्र में विक्रम संवत् ११५४ में चांगदेव को गुरुदेवने दीक्षा दी, सोमदेव नाम रखा। गुरुदेव की कृपा से सोमदेव मुनि सर्वशास्त्रों में पारंगत हुए। उनकी योग्यता देखकर आचार्यश्री देवचंद्रसूरि ने संवत् ११६६ में| सोमदेव मुनि को २१वर्ष की उम्र में आचार्यपद दिया, और उनका नाम रखा-हेमचंद्राचार्य।
आचार्य बनने के पश्चात् हेमचंद्राचार्य ने गुजरात की राजनीति को एक नया मोड़ दिया। गुजरात के तत्कालीन | राजा सिद्धराज जयसिंह का उत्तराधिकारी वे कुमारपाल को बनाना चाहते थे। इसके पीछे एक कारण यह था कि कुमारपाल
आचार्यश्री के उपकारों से उपकृत था, दूसरे, वे गुजरात में अहिंसा के कार्य करवाना चाहते थे; तीसरे, गुजरात में जैनधर्म के सिद्धांतों का जनता में प्रचार-प्रसार करना था। कुमारपाल राजा को शैव से परमाहत और धर्मपरायण बनाने का श्रेय आचार्यश्री को ही था।
आचार्यश्री ने समय-समय पर राजा कुमारपाल को धर्म प्रेरणाएँ दी हैं, और धर्म-विमुख मार्ग पर जाने से बचाया है। आचार्यश्री के विपुल साहित्य-सर्जन से प्रभावित होकर राजा कुमारपाल एवं तत्कालीन विद्वान् श्रावकों व राजाओं | ने इन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' पद प्रदान किया।
आचार्यश्री की साहित्य-सर्जना उन्हें अमर बना गयी है। मैं पूज्य आचार्यश्री की अनेक कृतियों पर मुग्ध हूँ। मैंने आपके द्वारा रचित योगशास्त्र पढ़ा। मुझे इसकी विशाल स्वोपज्ञवृत्ति देखकर अंतः स्फुरणा हुई कि क्यों नहीं, इस विशाल व्याख्यासहित योगशास्त्र का हिन्दी-अनुवाद प्रस्तुत किया जाय; जिससे आम जनता पू. आचार्यश्री जी महाराज के अनुभवयुक्त वचनों से लाभावित हो सके। मेरे द्वारा किये गये हिन्दी-अनुवाद के साहस में विद्वदवर्य समन्वयवादी विचारक मुनिश्री नेमिचंद्र जी महाराज का सुयोग मिल गया। इस ग्रंथ के संशोधन एव संपादन में उनके सहयोग से मैं| इस योगशास्त्र को हिन्दी-अनुवाद-सहित सुज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सका हूँ। ग्रंथ के अनुवाद में दृष्टिदोष से, असावधानी से कोई सिद्धांत विरुद्ध बात लिखी गयी हो तो सुज्ञ पाठक मुझे क्षमा करेंगे। कोई महानुभाव मुझे इसमें भूल सुझायेंगे तो मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा।
___ आशा है, धर्मप्रेमी पाठक इस ग्रंथराज से अधिकाधिक लाभ उठाकर आत्मविकास करेंगे; इसी शुभाकांक्षा के