Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बारह
ग्रन्थ ने संस्कृत-व्याकरण को दर्शन की उदात्त भूमिका में प्रतिष्ठापित किया और उसके असाधारण स्वरूप एवं महिमा को सर्वथा अनावृत, एवं सुस्पष्ट करने का प्रयास किया।
__ वाक्यपदीय के प्रथम काण्ड को ब्रह्मकाण्ड अथवा आगमकण्ड कहा जाता है। इसमें शब्दाद्वैतवादी व्याकरणदर्शन की दृष्टि से शब्दब्रह्म के स्वरूप, व्याकरणदर्शन के प्रयोजन, स्फोट, प्राकृत तथा वैकृत ध्वनि इत्यादि विविध विषयों पर विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। इस काण्ड को सम्पूर्ण वाक्यपदीय की भूमिका माना जा सकता है । द्वितीय काण्ड में वाक्य की विविध परिभाषायें प्रस्तुत करते हुए, वाक्य एवं वाक्यार्थ की अखण्डता के प्रतिपादन के साथ-साथ वाक्य-सम्बन्धी लगभग सभी समस्याओं का शास्त्रीय पद्धति से गम्भीर समीक्षण मिलता है। इसी कारण इस काण्ड को वाक्यकाण्ड कहा जाता है। ततीय काण्ड को पदकाण्ड अथवा प्रकीर्णकाण्ड कहा जाता है। इस काण्ड में १४ विविध समुद्देशों पर विचार किया गया है। ये समुद्देश हैजाति, द्रव्य, सम्बन्ध, भूयो द्रव्य, गुण, दिक्, साधन, क्रिया, काल, पुरुष, संख्या, उपग्रह लिंग तथा वृत्ति । पुण्य राज से पता लगता है कि वाक्यपदीय के इस काण्ड में लक्षण नामक एक समुद्देश भी था जो बाद में लुप्त हो गया।
वाक्यपदीय की स्वयं भर्तृहरि ने ही एक वृत्ति लिखी थी जिसे स्वोपज्ञ वृत्ति कहा जाता है। आज यह वृत्ति सम्पूर्ण प्रथम काण्ड पर तथा द्वितीय काण्ड के कुछ भाग पर प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त भर्तृहरि के नाम से महाभाष्य दीपिका तथा शब्दधातुसमीक्षा नामक ग्रन्थों का भी उल्लेख विद्वानों ने किया है।
वाक्यपदीय के टीकाकारों में वृषभदेव पुण्यराज तथा हेलाराज का नाम गौरव के साथ लिया जाता है। वृषभदेव (५५० ई०) की टीका का नाम वाक्यपदीयपद्धति है तथा सम्प्रति केवल प्रथम काण्ड पर ही उपलब्ध है। पुण्यराज (९ वीं शताब्दी) की टीका वाक्यपदीय के द्वितीय काण्ड पर ही उपलब्ध है। हेलाराज (१०वीं शताब्दी) ने वाक्यपदीय के तीनों काण्डों पर अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी थी। प्रथम तथा द्वितीय काण्ड से सम्बद्ध टीका का नाम शब्दप्रभा था। तृतीय काण्ड की टीका का नाम प्रकीर्णप्रकाश है। सम्प्रति केवल तृतीय काण्ड की टीका ही उपलब्ध है। इन टीकानों के अतिरिक्त क्रियाविवेक, वातिकोन्मेष तथा अद्वयसिद्धि नामक ग्रन्थों की रचना भी हेलाराज ने की थी। पुण्यराज तथा हेलाराज दोनों काश्मीरी विद्वान् जान पड़ते हैं ।
समय की दृष्टि से हेलाराज से पूर्व कैय्यट (६०० ई०) का नाम लिया जा सकता है क्योंकि हेलाराज कैय्यट के बाद के हैं। हेलाराज ने कैय्यट की व्याख्या के अनेक स्थलों का, जो पातंजल महाभाष्य की कैय्यट-कृत प्रदीप टीका में आज भी उपलब्ध हैं, बिना नाम लिये खण्डन किया है। भर्तृहरि-रचित वाक्यपदीय तथा महाभाष्यदीपिका, जिसे कैय्यट ने 'सार' कहा है', के आधार पर कैय्यट ने सम्पूर्ण महाभाष्य पर अपनी १. वाप० पुण्यराज-कृत टीका २.८५; एतेषां स्वरूपं लक्षणसमुद्देशे विनिर्दिष्टम् ।.... 'लक्षणसमुद्देशश्च
पदकाण्डमध्ये न प्रसिद्धः। द्र०-महा० प्रदीप टीका के प्रारम्भिक श्लोकभाष्याब्धि: क्वातिगम्भीरः क्वाहं मन्दमतिस्ततः । छात्राणामुपहास्यत्वं यास्यामि पिशुनात्मनाम् ।। तथापि हरिबद्धन सारेण ग्रन्थतुसेना । क्रममाणः शनैः पारं तस्य प्राप्तोस्मि पङगुवत् ।।
For Private and Personal Use Only