Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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ग्यारह
नहीं है कि पारिपनि के हृदयस्पर्शी व्याख्याता कात्यायन तथा पतंजलि ने, (जिन्हें पाणिनि के समान अथवा उनसे भी अधिक प्रामाणिक माना जाता है) पाणिनीय व्याकररण के क्षेत्र को, शब्दतत्त्व सम्बन्धी दार्शनिक चिन्तनों से आप्लावित कर दिया। पर इन दोनों से पूर्व दाक्षायण व्याडि ने, व्याकररण-दर्शन से सम्बद्ध एक लाख श्लोकों के विपुल परिमारण वाले, अपने संग्रह नामक अद्भुत एवं असाधारण ग्रन्थ में, शब्द, ध्वनि, वरण, पद, वाक्य, उपसर्ग, निपातादि सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार किया था। संभव है कात्यायन, पतंजलि तथा भर्तृहरि आदि द्वारा प्रदर्शित व्याकरण-दर्शन- सम्बन्धी चिन्तनों, विवादों, मतों तथा निर्णयों का प्रधान आधार यही ग्रन्थ रहा हो। इस सम्भावना के कुछ संकेत पातंजल महाभाष्य' तथा वाक्यपदीय' में उपलब्ध हैं ।
कात्यायन ( ई०पू० तीसरी शताब्दी) ने पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनेक शब्दों तथा विषयों की, दार्शनिक परिवेश में गम्भीर विवादों तथा युक्तियों के आधार पर, अतीव मार्मिक व्याख्या प्रस्तुत की है तथा अनेक न्यायों, परिभाषाओं तथा ज्ञापकों को अभिव्यक्ति दी है, जो वार्तिकों के रूप में पातंजल महाभाष्य में संगृहीत हैं। यों तो कात्यायन से पूर्ववर्ती अनेक ग्राचार्यों के वचन तथा कुछ श्लोकबद्ध वार्तिकें भी महाभाष्य में संगृहीत हैं परन्तु उनके विषय में भी विशेष कुछ भी ज्ञात नहीं है— कहीं कहीं किन्हीं नामों का निर्देश अवश्य मिल जाता है ।
१.
संस्कृत व्याकरण दर्शन के अन्तिम प्रमाणभूत मुनि पतंजलि ( ई०पू० द्वितीय शताब्दी) ने कात्यायन के लगभग सभी वार्तिकों का संकलन करके उनकी तथा उनके प्रसंग से, अष्टाध्यायी के सूत्रों की संयुक्तिक एवं लोक-संगत व्याख्या की है और अपने पूर्ववर्ती इन दोनों मुनियों की न्यूनता को अपनी इष्टियों द्वारा दूर करने का प्रयास किया है। साथ ही अनेक प्राचीन प्राचार्यों के मतों तथा सिद्धान्तों का संकलन और उनका प्रसंगत: विस्तृत विवेचन, व्याकरणदर्शन की पृष्ठभूमि में, बड़ी रोचक शैली में किया है । इस दृष्टि से पातंजल महाभाष्य, व्याकरण के क्षेत्र में सम्प्रति उपलब्ध ग्रन्थों की अपेक्षा, एक अनुपम ग्रन्थ हैं । भर्तृहरि ने इस ग्रन्थ के प्रणेता पतंजलि को तीर्थदर्शी गुरु तथा महाभाष्य को व्याकरण सम्बन्धी सभी न्याय- बीजों का मूल माना हैं ।
२.
४.
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इन तीनों - पाणिनि, कात्यायन तथा पतंजलि - मुनियों तथा इनके समाकालिक श्राचार्यों के बाद ईसा की पाँचवी शताब्दी में व्याकरणदर्शन के क्षेत्र में महान् शब्दयोगी भर्तृहरि का पदार्पण हुआ । व्याकररणदर्शन सम्बन्धी लगभग सभी प्रश्नों, समस्याग्रों तथा विवादों का प्रकरण और प्रसंग आदि की सुव्यवस्था के साथ, अतीव गम्भीर एवं महत्त्वपूर्ण विवेचन भर्तृहरि के वाक्यपदीय नामक ग्रन्थ में, जिसका आकार लगभग दो हजार कारिका समलंकृत है, उपलब्ध है । कहना नहीं होगा कि सर्वप्रथम इसी
द्र० - सिद्धान्तकौमुदी (अजन्त पुल्लिंग प्रकरण १.१.२८ ); यथोत्तरं मुनीनाम् प्रामाण्यम् ।
द्र० - महा० पस्पशाह्निक पृ० ४६; सङ्ग्रह एतत् प्राधान्येन परीक्षितम् नित्यो वा स्यात् कार्यो वेति । तथा महा० २.३.६६; शोभना खलु दाक्षायणस्य सङ्ग्रहस्य कृतिः; शोभना खलु दाक्षायणेन संग्रहस्य कृतिरिति ।
द्र० – वाप० २.४७८; संग्रहेऽस्तमुपागते। तथा २.४८१; आर्षे विप्लाविते ग्रन्थे संग्रहप्रतिकंचुके। द्र०- बाप ० २.४७८;
कृतेऽथ पतंजलिना गुरुणा तौर्थदर्शिना ।
सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥
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