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सुबुद्धिनी अवांतर कथा घरमांथी चाली नीकल्यो. ते धर्मना प्रसादथी रस्तामां क्षुधा, तृषाना क्लेशने नहीं जाणतो अने परमेष्ठि महामंत्र- स्मरण करतो चालवा लाग्यो. राजानी आज्ञाथी ते पोताना राजाना देशने छोडी बीजा देशमां गयो अने त्यां प्रसन्नताने उत्पन्न करे तेवो कोइ एक जिन प्रासाद तेने प्राप्त थयो ते प्रासादमां विधिथी नैषेधिकी वगेरे दश उत्तम 'त्रिको साचवीने ते आ प्रमाणे प्रभुनी स्तुति करवा लाग्यो.।।१७९ ।।
सुर, असुर अने मनुष्योना स्वामीवडे पूजेला, गुणोथी युक्त, दोष रहित अने सर्वेना हितकारी एवा अहंत प्रभुने हुं स्तवं छं. हे अधीश! जो तमे शंकर हो तो भवानीना हित करनारा थाओ. अने तमे शंकर छतां अनंगने अंगयुक्त करो छो, ते अद्भुत वार्ता छे. हे जिन! तमे जो विष्णु अथवा जगन्नाथ हो तो ते भले हो, परंतु ते छतां तमे जनार्दन अने जलाशायी नथी, ते आश्चर्यनी वात छे. हे प्रभु, तमे जो स्वयंभू ब्रह्मा हो तो सर्वसुर-देवताओमां ज्येष्ठ थाओ. हे शंभो! तमे जे मारा भवनो अंत-नाश करता नथी, ते तमने शोभतुं नथी. हे जिनेश! तमे शून्यने छोडनारा छो, छतां इंद्रे नाखेला 4चीवरवस्त्रने छोडी अने शून्यपणाने आश्रित एवा अंबरनुं ध्यान केम करो छो? हे विभ, जे उपाधि (तीर्थंकरपणाने योग्य पुन्य प्रकृति)थी तमे प्राप्त थया छो, ते उपाधिने 'ह्रस्व करो नही. जो तमे ह्रस्व करो तो (समस्त घाति-अघाति कर्म) उपाधिने छेदी नांखो के जेथी हुं छद्मस्थ न रहूं. हे ईश! तमारा संतानमां पूर्व एवा अकर्मी पुरुषोए तमारी पासेथी सर्वस्व (मोक्षपद) मेळवेलुं छे तो हुँ 'सकर्मी सकर्मी छतो केवळलक्ष्मीने केम न मेळवू? हुं तो अज्ञानी तमारो संस्तव-परिचय अने स्तव-स्तुति करवी जाणतो नथी अने तमे तो सर्वज्ञ पण छो अने दातार पण छो, तेम छतां मने जे प्रिय छे ते केम आपता नथी? हे प्रभु! तमे अंतरना छ शत्रुओने हणो छो तो आ बहारना 1. दशत्रिकोनो सविस्तर अधिकार देववंदन भाष्यादिकथी जाणी शकाशे. (जुओ भाष्यत्रय) 2. शंकर भवानी-पार्वतीना हित करनार छे अने श्री जिन प्रभु भव-संसारना अनीहित
अनिच्छित करनारा छे. शंकर अंगयुक्त एवा कामदेवने अनंग-अंगवगरनो करनार छे अने श्री जिनभगवान अनंग-अशरीरी एवा सिद्धस्वरूपने वचन द्वारा बतावे छे. अथवा अनंग
सूत्रांग रहित एवा पुरुषने सूत्रांगवाळा करे छे. विष्णु जगतना नाथ कहेवाय छे, पण ते . जनार्दन-लोकोने पीडनारा अने जलशायी-जलमां सूनारा छे. अने श्री जिन भगवान् तो
लोकोने पीडनारा नथी अने जलमां सूनारा नथी. 3. शंभु-एटले सुख करनारा. जे सुख करनारा होय ते आ दु:खरूप संसारनो नाश करे त्यारे सुख करनारा कहेवाय छे. 4. जे चीवर (उत्तम वस्त्र-अलंकारादिक) नो त्याग करे ते प्रभु, इन्द्रे खभा उपर स्थापित करेल वस्त्रनुं केम चिन्तवन-ध्यान करे! ते देखीता विरोधनो परिहार (समाधान) आ रीते थई शके छे के प्रभृशून्य-दोष रहित (जाग्रतपणे) शृनयता आश्रित एवा अंबर-आकाशनुं (निरालंबन) ध्यान-चिन्तवन करे छे. 5. ह्रस्व एटले टुंकी. तमे आ संसारनी उपाधि छेदी नांखो तो हुँ छद्मस्थ-संसारी न रखें. अर्थात् निरूपाधि स्वरूपवाळो बनी जाउं. 6. अकर्मी-कर्म रहित. 7. सकर्मी-कर्म सहित.
श्री विमलनाथ चरित्र - प्रथम सर्ग