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श्री विमलनाथ प्रभुना पूर्वभवतुं वृत्तांत प्रशंसा करी. आ प्रमाणे हे मुनि, तमारे पण यत्नथी कायगुप्तिनुं पालन करवू, जेथी तमारुं प्रथम व्रत सर्व प्रकारे शुद्ध थाय.
वळी का छे के, "साधुपुरुष पण जो 'भग्नसूत्र थाय, तो ते अन्य पासेथी अर्थ मेळवी शकतो नथी. तेथी तमारे सन्मानना व्यवसायथी ते सूत्रनुं रक्षण करवं. जे पुरुषो सदाचारी अने ध्रुव दर्शनवाळा होय छे ते उत्तरकाष्ठाने भजे छे, पण अपर बीजी पूर्वाशाने भजता नथी. जे विश्वमा ऋषि थईने पण दक्षिणदिशाने छोडता नथी, ते क्षमाधारी थई वृद्धि पामता नथी. पण अंदर खारो अने लक्ष्मीनो जनक थाय छे. जे त्रण जगतना जीवोनी जेम मारुं तारुं करतो नथी-समसर्वत्र समभावने धारण करे छे. तेवा (समभावी)नुं 'दर्शन थतां लोको आत्माने सारी रीते जाणनारा थाय छे, ए आश्चर्यनी वात छे. जे आ लोकमा मुक्तिने सेवे नहीं तेने परलोकमां ते मुक्ति क्याथी होय? कारण के लोके सेवन करेली वामा परलोकमां साथे रहेनारी थाय छे. हे मुनि, अहिं तुं क्षमाभृत् थयो छे तो हवे अतुल्य एवी 'क्षमाने धारण कर. "सुगोत्रना अर्थने धारण करनारा साधुओ- पद उच्च छे. जे विक्रम छोडवामां आवे ते मोक्षमार्गमां 10विक्रमरूप बने छे, तेथी ते विक्रम मन, वचन अने कायाना योगमां योजी जिन नामने अर्थे 1. साधुपक्षे भग्नसूत्र-एटले सूत्रना अभ्यासनो भंग करनार (मंद) थाय तो बीजा शास्त्र संबंधी
अर्थ-मेळवी शकतो नथी, तेथी गुरु वगेरेना सन्मानी सूत्रना अभ्यासतुं रक्षण करवू, साधु-साहुकारपक्षे जे भग्नसूत्र एटले व्यवहारनो भंग करनार थाय छे, तो अन्य-बीजा पासेथी तेने अर्थ-द्रव्य मळतुं नथी. तेथी साहुकारे सारा मानथी पोताना व्यवसाय धंधानुं रक्षण करवं. 2. सदाचारी एटले सारा आचारवाळा अने ध्रुव-निश्चळ दर्शनवाळा होय, ते उत्तरकाष्ठा उंची दिशा-स्थितिने भजे पण बीजी पूर्वाशा-पहेलानी आशा राखता नथी. जे सदाचार सदा गति करनार ध्रुवना तारानुं दर्शन उत्तरकाष्ठा-उत्तर दिशामां थाय छे, पूर्व दिशामां थतुं नथी. 3. जे ऋषिमुनि थया पछी दक्षिणाशा-दक्षिणा लेवानी आशा राखे छे ते क्षमाधारी क्षमाने धरनार साधु थया छतां वृद्धि पामतो नथी पक्षे जे ऋषिना तारा दक्षिण दिशामां उगे छे. ते क्षमाधारी पृथ्वी उपर आववाथी वृद्धि पामता नथी. आगळ वधता नथी. पण ते अंदर खारो-खारा जळवाळो अने लक्ष्मीनो पिता-समुद्र बने छे. 4. अर्थात् जे त्रण जगतमां कोईने पोतानुं के पारकुं जाणतो नथी, तेवा महात्माना दर्शनथी बीजा लोको पण आत्मभाव-परभाव जाणी शके छे, ए आश्चर्यनी वात छे. 5. उपसर्गसहं देहं, य: कुर्यात्तस्य नासुखं अनावृतं सदा वत्रं, शीतादिसहते खलु ॥११५२।। 6. जे आ लोकमां मुक्तिने संतोष-निर्लोभता-निष्परिग्रहताने सेवे छे-आदरे छे, तेने परलोकमां मुक्ति-मोक्ष मळे छे. आ लोकमां साथे रहेली स्त्रीओ परलोकमां पण साथे रहेनारी थाय छे. 7. क्षमाभृतक्षमाने धारण करनार पक्षे पर्वत. 8. क्षमा-क्षमागुण पक्षे पृथ्वी. 9. सुगोत्र-सारं गोत्र कुल पक्षे पर्वत. 10. विक्रम-विशेष प्रवृत्ति.
श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
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