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रागद्वेष करवा उपर वरुणशेठना चार पुत्रोनी कथा
वरुण शेठनो चोथो पुत्र नंद द्वेषथी घणा माणसो साथे कजीया करतो हतो. एक वखते पडोशमां रहेला कोई दुकानदारनी साथे तेणे कजीयो कर्यो. ते दुकानदारे लोढाना दंडथी तेना मस्तक उपर एवो घा कर्यों के जेथी ते मृत्यु पामी गयो अने क्रोधथी पहेली नरकमां नारकी पणे उत्पन्न थयो.
आ प्रमाणे रागद्वेषने वश थयेलां ते वरुण शेठना चारे पुत्रो मृत्यु पामी गया. आथी कांईपण आश्चर्य पामवानुं नथी पण विवेकी पुरुषे तो तेनो विचार करवानो छे. राग अने द्वेषने लईने मोटा यतींद्रो; सुरेंद्री, चक्रवर्तीओ अने नरेंद्रो पण दुर्गतिमां जाय छे, तो पछी बाकीना बीजानी शी वात करवी ? ते आगळ पण आ दुःसहअनंत संसारमां भम्या करशे, तेथी कार्यवेत्ता पुरुषे हंमेशां रागद्वेष करवा नही - रागद्वेषथी अळगा रहेवुं जोईए.
आ प्रमाणे गुरु शिक्षा आपेला तेणे (धनमित्रे) ते उपदेश अंगीकार करी स्थिर हृदये लांबा काळ सुधी चारित्र पाल्युं. केटलाएक शुभ काळ चाल्यो यो अने ज्या विकराळ काळ आव्यो त्यारे तेणे एक वखते भवांतरना अभ्यासथी अने कर्मनी विचित्रताथी गुरुए वार्या छतां पण एवं नियाणुं बांध्युं के, "हुं आ तपस्याथी बलीनो वध करनारो थाउं" ज्यां सुधी हृद पूर्वे सुवर्णवाळो छे त्यां सुधी हृदने एटले सुहृद्ने स्तवं छं. परंतु ज्यारे ते सुवर्ण अपूर्व थाय एटले अ अक्षर पूर्वे छे एवो थाय त्यारे ते असुहृत् (शत्रु) थई जाय छे. पछी ते क्रोधवडे शरीरने दमन करी अंतकाले अनशन लई मृत्यु पामी अच्युत देवलोकमां देवतारूपे उत्पन्न थयो. बली पण दीक्षा लई तेनुं चिरकाळ पालन करी सुखनी शय्या रूप एवा उत्तम देवलोकमां देवता थयो. त्यां बंने प्रकारना सुख भोगवी आयुष्यनो क्षय थतां त्यांथी च्यवीने आ भरतक्षेत्रमां आवेला नंदन नामना नगरमां यथार्थ नामवाळो समरकेशरी नामे राजा हतो. सुंदर आकृतिने धारण करनारी सुंदरी नामे तेने पत्नी हती तेणीना उदरमां बलिनो जीव अवतर्यो, ते जनम्या पछी अनुक्रमे पिता समरकेशरीए पोताना मुखथी तेनुं नाम मेरक पाड्यं ।। ९०० ।। ते अनुक्रमे साठ धनुष्यनी कायावाळो, साठ लाख वर्षना आयुष्यवाळो अने राजाओने नमाडनारो प्रतिवासुदेव थयो. त्रण खंडोनो भोक्ता अने संपत्तिने जोडनारो ते प्रतिवासुदेव मेरक पोताना दोषोना समूहने छोडी एक छत्रवाळं अने सन्मित्रोवाळं क्षत्रिय राज्य करवा लाग्यो.
आ अरसामां आश्चर्योना विलासवाळा आ भरतक्षेत्रमां शत्रुओथी नमावी शकाय नहीं तेवी द्वारिका नामे नगरी हती. तेनी अंदर कल्याणोना विलास श्री विमलनाथ चरित्र - चतुर्थ सर्ग
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