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अगियारमा व्रत उपर मलयकेतुनी कथा
मदनवेग हतुं. ते राजा ते हरिबलने क्षत्रिय जातिमां थयेलो जाणतो हतो, तेथी एक वखते राजाए हरिबलने स्त्री सहित भोजनने माटे आमंत्रण आप्युं. त्यां राजा वसंतश्रीने जोई अत्यंत मोह पामी गयो, परंतु हरिबल साथे हतो, एटले तेणीने मेळवी शक्यो नहिं, पछी राजाए हरिबलने बोलावी तेनी आगळ जणाव्यं के, "मारी पुत्रीनो विवाह मोटा उत्सव साथे थवानो छे. लंकाना राजा बिभीषणनी साथे मारे अद्भुत मित्रता छे, तेथी ते बिभीषणने ते उत्सवमां बोलावी लाववा तारा सिवाय बीजो कोई त्यां जई शके तेम नथी." राजानां आवा वचनने हरिबले कबूल कर्तुं अने ते तरत समुद्रना तीर उपर गयो, परंतु लंकानुं वहाण मन्या सिवाय ते त्यां जई शकतो न हतो.
अहिं राजाएं पोतानी दासीद्वारा वसंत श्रीने बोलावी मागणी करी, त्यारे वसंत श्रीए कह्युं के, "जो मारा पति नहिं आवे, तो पछी हुं तमारुं सर्व वचन मान्य करीश." तै सांभळी राजा मदनवेग जरा हृदयमां खुशी थयो. साम वचनथी सर्व कार्य सिद्ध थाय छे.
समुद्र तीर रहेला हरिबले पेली जलदेवीनुं स्मरण कयुं, एटले ते देवी हाजर थई, जे वचन विबुध - देवताओ कहे छे, ते बराबर पाळवामां ज आवे छे. जलदेवीए कह्युं, "वत्स! ते मने हमणां शा माटे याद करेल छे?" हरिबले कह्युं, "हे कृपानिधि देवी! मने तत्काळ लंकामां पहोंचाडो." पछी देवीए तरत ज तेने लंकामां पहोंचाड्यां. हरिबल लंकामां जई एकाएक शून्य गृहमां स्वस्थ मने रह्यो . त्यां एक तुंबडुं लटकतुं जोवामां आव्युं. तेमांथी अमृत लई तेणे एक रक्षा (राख) ना ढगला उपर नाख्युं, तेबामां तेमांथी एक स्त्री प्रगट थई अने तेणे हरिबलने कह्युं के, "तुं कोण छे? अहिं क्यांथी अने शा माटे आव्यो छे?" तेणे कह्युं, "मारुं नाम हरिबल छे. हुं राजानो सेवक छं, विशाळ नगरमांथी अहिं आव्यो छं अने त्यांना राजा मदनवेगे लंकापति बिभीषणने आमंत्रण करवा मने अहिं मोकल्यो छे. हवे हाल तमारुं आश्चर्यकारी चरित्र सांभळवाने हुं ईच्छं छं." ते स्त्री बोली, "मारो स्वामी बिभीषण राजानो शस्त्रपालक छे. तेनो मारी तरफ अविश्वास छे, एटले ते मने अहिं घरमां रक्षा बनावीने राजानी पासे जाय छे. पाछो अहिं आवे, त्यारे आ तुंबडीना अमृतना बिंदुथी ते रक्षा उपर छांटी मने नवीन बनावे छे, आ प्रमाणे ते हंमेशां कर्या करे छे. हवे हुं मारा ते नित्ये मृत्यु आपनारा पतिथी कंटाळी गई छं. तो आपणे बंने एक खड्गरत्न अने आ तुंबडुं लईने स्वेच्छाथी चाल्या जईए. हे स्वामी, तमारा राजा मदनवेगे जे आ बिभीषणने श्री विमलनाथ चरित्र - पंचम सर्ग
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