Book Title: Vimalnath Prabhunu Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti
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वासुदेव चरित्र-लोभाकर अने लोभानंदीनी कथा हुं मारा भाईर्नु पूर्व- वैर लऊं." विजया बोली-"ज्यारे ते राक्षस निद्राने आधीन थई सुतो होय, त्यारे जो तेना चरण उपर घी- मर्दन थाय तो ते राक्षसनी निद्रा दीर्घनिद्रा बनी जाय छे. परंतु जो पुरुषने हाथे घी- मर्दन थाय तो ज तेने निद्रा आवे छे, स्त्रीने हाथे मर्दन थवाथी निद्रा आवती नथी. तेमां जो पोताना चरणना मर्दननी पहेलां ते राक्षस मनुष्यने जाणीले, तो पछी ते माणसना चरणने युद्ध करीने भांगी नाखे छे." आ प्रमाणे तेणीए प्रथमथी मांडीने कहेलुं नगरीनुं वृत्तांत मारा जाणवामां आवी गयुं छे. परंतु ए कार्यनी सिद्धि कोईनी सहाय विना थई शके तेम नथी. एवं धारीने कोई उत्तम सहाय मेळववाने माटे हुं अहिं राह जोतो हतो तेवामां क्रमने जाणनारा तमे अहिं मने मळी आव्या छो, तेथी तमे सहाय करो के जेथी मारुं मोटुं राज्य पार्छ आवे अने पृथ्वीनुं रक्षण करनारा मारा बंधुनुं वैर हमणां ज लेवाय." ते सांभळी गुणवर्माए विचार कर्यो के, "आ माणसथी मारं कार्य सिद्ध थवानुं छे, तो हुँ गर्वरहित थई तेनुं वचन कबूल करुं कारण के 'उपकार अने अपकार सहज रीते पोतानाथी बने छे. जेवू बीज वावीए, तेवा ज फळनो उदय थाय छे." आ प्रमाणे चिंतवी ते प्रशंसनीय बुद्धिवाळा पुरुषनुं वचन गुणवर्माए मान्य कयु. "तप्तयोर्लोहयोर्लोके, का वेला मिलने लगेत् ।" बंने लोढा तपेला होय, तो तेमने मळी जतां शी वार लागे?2 जे पोतानुं कार्य अने अग्नि ते बंने उष्ण गणाय छे अने बीजारों कार्य अने जळ ते बंने शीतळ गणाय छे. विजयचंद्र बोल्यो, "तो हवे तमारे ते राक्षसना बने चरण उपर घीनुं मर्दन करवू के जेथी तेने निद्रा आवे. पछी हुं पापरहित थई एकहजार मंत्रनो जाप करी थोडा . वखतमां तेने अवश्य वश करी लईश." गुणवर्माए ते कबूल कयु. एटले तेओ बंने बधी सामग्री एकठी करी ते राजमहेलमां गया अने त्यां छूपी रीते रह्या. ज्यारे महाघोर अंधकार थयो, त्यारे ते राक्षस महेलमां आव्यो. तरत तेणे विजयाने कर्दा के, "मने आजे मनुष्यनी गंध आवे छे." विजया बोली-"अहिं तो हुँ एक ज मनुष्य छं. बीजूं कोई माणस नथी. मद भरेलो गजेंद्र होय, त्यां बीजो कोण स्थिति करी शके?" तेणीना आ वचन उपरथी ते राक्षस निश्चिंत थईने सुतो. तेवामां गुणवर्माए आवी वधूना मिषथी निर्भय थई घी वडे तेना चरण घसवा मांड्या. फरीवार तेने माणसनी गंध आववाथी ते जेवामां बेठो थवा ईच्छतो हतो, तेवामां साहसी गुणवर्माए वधारे चरणमर्दन करवा मांड्यु. ते वखते विजयचंद्रे करवा 1. उपकारापकरौ तु सहजैनात्मसम्भवो । यादृगारोप्यते बीजं, तादृगेव फलोदयः ।।७२३।। 2. आत्मीयकार्य वह्निश्च द्वाविमावुण्णक्षणौ । परकार्यं च पानीयं, दे इमे शीतले स्मृते ॥७२५।।
श्री विमलनाथ चरित्र-चतुर्थ सर्ग
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