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शीलव्रत उपर शीलवतीनी कथा सती शीलवतीए पूछ्युं, "स्वामी, तमारा हृदयमां शी चिंता छे?" अजितसेने कां, "हे प्राणवल्लभे, आजे राजा नगरमाथी चाले छे, तो मारे तेनी साथे जर्बु पडशे. हे भद्रे, जो हुँ तने साथे लईने जाउं, तो घर शून्य थई जाय अने तने घरमां मूकीने जाउं, तो मने शांति रहे नहीं, 'ते एक तरफ नदी अने बीजी तरफ वाघ' एना जेवो न्याय बन्यो छे. तेथी ज हुं चिंतातुर थयो छु. ते सिवाय बीजुं कांई पण कारण नथी." पतिनां आ वचनो सांभळी शीलवती बोली, "स्वामिन्, हुं अहिं घरमा रहुं, तो ईच्छित फळने आपनारी 'निर्वृत्ति तमने केम न रहे?" अजितसेन बोल्यो, "हे प्रिया, मारा घरमां बीजुं कोई वृद्ध के नानुं माणस नथी, तो तारा जेवी नानी वयनी स्त्री कदि विनाश पामी जाय. का छे के, "जे वृक्षो नदीने कांठे रह्या होय, जे स्त्री निराश्रय-एकली रही होय अने जे राजाओ मंत्री वगरना होय, ते लांबुं आयुष्य भोगवी शकता नथी." हे शुभे जेम पाकी गयेल अनने बगडतां वार लागती नथी, तेम स्त्रीने बगडतां वखत लागतो नथी. तेथी स्वीओने आ लोक अने परलोकमां हानि थाय छे अने पुरुषोने ग्लानि थाय छे. एथी करीने हमणां मारा मनमां चिंतानो संताप थाय छे." आ सांभळी शीलवती बोली, "स्वामी, आ तमारी वात तद्दन वृथा छे. सीता राक्षसना घरमा हता, त्यारे त्यां तेनो रक्षक कोण हतो? हे प्राणनाथ राजीमती, दमयंती, मृगावती, कळावती, नंदा, भद्रा, सुभद्रा अने मलयसुंदरी एवी अनेक महासतीओ आ पृथ्वी उपर थई । गई छे. तेमनो रक्षक कोण हतो? तेनो तमे विचार करो. जे स्त्रीओनुं मन शुद्ध अने विशेष प्रबोधवाळु छे, तेवी स्त्रीओ विकट एवा संकटमां पण पोताना शीलनु पालन करे छे अने जो तेओर्नु मन अशुद्ध होय छे, तो तेओ पोताना शीलनु खंडन करी नाखे छे. कारण के ते शील पाळवू अने न पाळवू, तेनुं मुख्य कारण मन छे. अने ते मनमांथी कामदेव उत्पन्न थाय छे. त्रिशूलने धारण करनारा शंकरे पोताना जटाजूटमां गंगाने कबजामा राखी छे, तो पण ते विष्णुना चरणमां जाय छे तेनुं कारण ते स्वभावथी निम्नगा-नीची तरफ जनारी छे. ब्रह्माए लक्ष्मीनुं स्थान कमळ बनाव्युं अने ते कमळ एक स्तंभवाळा जळना किल्लामा राख्युं अने पोताना (चार मुखवडे) तेनी रक्षा करी, तो पण ते लक्ष्मी रात्रे कमळने छोडी बीजे चाली जाय छे. तेथी डाह्या पुरुषो पण जे स्त्री चंचळ होय तेनी रक्षा शी रीते करी शके?" 1. सुखशांति. 2. नदीतटे च ये वृक्षा, या च नारी निराश्रया। मन्त्रि हीनाश्च राजानो, न भवन्ति चिरायुषः।।२२९।। श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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