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धर्मतत्त्वना स्वरूप उपर पूर्णकळशनी कथा तेने जोई मदनश्री तरत बोली के, 'शुं आ कामदेव?' त्यारे कामलता बोली, "कामदेव तो अनंग छे अने आतो सुंदर अंगवाळो छे" शशिकला बोली, "जरूर आ पुरुषोत्तम-विष्णु ज छे, पण विष्णु तो जनार्दन-लोक पीडक छे अने आतो जनोने कोई आनंद आपनार छे." मधुश्री बोली, "जरूर आ शंकर ज छे, परंतु हे सखी, ते शंकर 'विरूपाक्ष छे अने आतो कमळलोचन छे." मदनश्री बोली, "त्यारे आने इंद्र जाणी ल्यो. जोके ते इंद्र कामरूपी छे, पण हजार नेत्रोथी दूषित छे. तो पछी बीजा सर्वेने मान्य एवो आ अन्य पुरुष छे, एम मने कहो. पण आ पुरुष आपणा श्रेष्ठ आनंदनी इच्छा करतो. नथी." ते बालाओना आवा वचनो सांभळी तेमनी शंकाने दूर करवा पेलो साधक बोल्यो. "आ कामदेव वगेरे मांहेलो कोई नथी परंतु ते प्रतिष्ठानपुरना राजा श्री मलयकेतुनो पवित्र पुण्यनी भूमिरूप अने स्त्रीओना काम तथा अर्थने करनार पूर्णकलश नामे पुत्र छे." आ सांभळी ते सर्व उत्तम कन्याओ विस्मय पामी गई अने परस्पर कहेवा लागी के, "संतुष्ट थयेला आ कामदेवे आपणने आवो स्वामी आप्यो छे." पछी सर्वेए मळीने साधकने कयु के, "आ वरने सत्वर जाग्रत करो, कारण के अत्यारे वरवाने योग्य एवो समय छे." पछी साधके ते कुमारने उठाड्यो. ते बालाओने जोई पूर्णकलशे साधकने का, अरे भाई! शं आ पातालनी नागकन्याओ छे? अथवा विद्याधरनी स्त्रीओ छे? के सुरांगनाओ छे? ते काई बराबर समजातुं नथी." कुमारना आ शब्दो सांभळी राजपुत्रीनी विचिक्षणा नामे दासी बोली, "हे सुंदर एवा विकल्पना भाषणो करवाथी बस थयु. जे खरी हकीकत छे ते सांभळो. आ पहेली अनुपम कन्या छे, ते सूरसेन राजानी पुत्री छे. बीजी सेनापतिनी पुत्री छे, त्रीजी मंत्रीनी पुत्री छे अने आ चोथी नगरशेठनी पुत्री छे. आ चारे आपने वरवाने आवेली छे. हमणां शुभ लग्नछे तेथी ए चारेनुं सत्वर आदरथी पाणिग्रहण करो." पछी तेणीना कहेवाथी कुमार पूर्णकलशे कामदेवनी समीपे जईने गांधर्व विवाहवडे तेमनुं पाणिग्रहण कयु. ते पछी मदनश्री वगेरे सर्व बालाओए कुमार पूर्णकलशने आ प्रमाणे का, "स्वामिन, तमे आ जगतना देशोमां फरवाने माटे अति आदर अने इच्छावाळा छो, तथापि तमारे पोताना माणसोनी विशेषपणे संभाळ लेवी जोईए. हे प्रभो, कमलिनीनी शोभा जल वगर होती नथी. का छे के, "अनाथ स्त्रीओने तेमनो बंधु पण पराभवने माटे थई पडे छे. सूर्यनो उदय न थतां जलमांथी थयेली कमलिनीने जलमांथी थयेलो चंद्र बंधु छतां पण तेमना 1. विरूपाक्ष-त्रण नेत्रोने लईने शंकर विरूप नेत्रवाळा छे. श्री विमलनाथ चरित्र - द्वितीय सर्ग
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