________________
भावतत्त्वना स्वरूप उपर चंद्रोदरनी कथा बंनेए रोष छोडीने पेली दासीने अत्यंत खमावी छेवटे तेओ सर्वे धर्म करी अनुक्रमे आयुष्यनो क्षय थतां च्यवीने जे जितशत्रु राजा हतो ते आ चंद्रोदर राजा थयो छे. पेलो जे दत्त नामनो नाजर हतो, ते आ मंत्री धर्मरुचि थयो अने जे धारिणी राणी हती, ते तुं सती कलावती थई. पेली दासी धर्मकर्मने लीधे मृत्यु पामीने रूक्मिणी थई छे, तेथी जीव जे शुभाशुभ करे, बोले अने चिंतवे, ते कर्म तेवी ज रीते बीजे भवे वेदे छे. जे कर्म दुष्ट अभिप्रायथी बांध्यु होय, ते अनंत भव वेदनीय थाय छे अने जे मध्यम अध्यवसायथी बांध्यु होय, ते असंख्यभव वेदनीय थाय छे. जो प्राणी तप न करे, तो ते (पाप कर्म विपाके-फळ वेदतां) जघन्यपणे दशगणुं थाय छे. तपथी, क्षामणाथी अने निंदाथी ते कर्मनो क्षय थई जाय छे. ते कर्म प्रकृति, स्थिति, प्रदेश अने रसना बंधनथी चार प्रकारनुं छे, तेमज कषाय, योग मिथ्यात्व अने अविरतिना प्रत्ययथी चार प्रकार- छे. तेमां कर्मना बंधनुं मुख्य कारण रस ज देखाय छे. ते शुभ तथा अशुभ विभागवडे बे प्रकारनो छे. ते पण स्थूल बुद्धिवाळाओने एक स्थान वगेरे भेदोथी चार प्रकारनो छे. वळी अनंत अध्यवसायो कर्मना बंधनुं कारण छे. ते कर्म पण स्पष्ट अने बद्ध वगेरे 'भेदथी चार प्रकार- थाय छे अने जीवोने मूलप्रकृतिथी ते आठ प्रकारचें . थाय छे. तेना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय कर्म एवां नाम छे. तेमां ज्ञानावरणीयनी पांच, दर्शनावरणीयनी नव, वेदनीयकर्मनी बे, मोहनीयनी अट्ठावीश, आयु कर्मनी चार, नामकर्मनी एकसो त्रण, गोत्रनी बे अने अंतरायनी पांच, बंधमां एकसोवीस अने उदय तथा उदीरणामां एकसो बावीस उत्तर प्रकृतिओ कहेवाय छे. सत्तामां सर्वज्ञ भगवाने एकसोने अट्ठावन प्रकृतिओ कहेली छे. आ विषे वधारे कर्मग्रंथमांथी विद्वानोए जाणी लेवं. हे नृपति! तुं ते कर्मबंधना कारणोने हमणां ज छोडी दे के जेथी तने कदिपण नवीन पाप लागशे नहिं अने तारा पूर्वनां घणां पाप कर्मो हशे, ते क्षय पामी जशे. लोकोमां कहेवत छे के, "आवक वगर समुद्र पण सूकाई जाय छे." तुं अंतरना मोह-ममता मूर्छाने छोडी दे. कारण के ते बहिरंग बहारना संगना करतां बळवान् छे. आ लोकमां अंतरंग संगनो त्याग करवाथी बहिरंग संग विघ्न करनार थतो नथी. पर-बीजानी चिंता करनारा बीजा सेंकडो उपरांत माणसो छे; परंतु स्वात्मचिंता करनार कोईक ज होय छे. तेथी तुं परमात्मस्वरूपने जाणनार थई, स्वात्मचिंतानो आदर कर." ।।७००।। 1. निधत्त अने निकाचना. श्री विमलनाथ चरित्र - तृतीय सर्ग
185