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हुई। कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्य ने उसका वर्णन इस तरह किया है
'विषय - सुख में लीन, अपने आत्महित को भूले हुए लोगों को धिक्कार है। इस संसाररूपी कुँए में प्राणी 'अरघट्टघटि न्याय से (रैंट की घेड़ें जैसे कूँए में जाती है, भरती है और वापिस खाली होती है; वे इसी तरह चक्करखाया करती है। वैसे ही अपने कर्म से गमनागमन किया करते हैं। मोह से अंध बने हुए उन प्राणियों को धिक्कार है कि, जिनका जन्म सोते हुए मनुष्य की भांति फिजूल चला जाता है। चूहे जैसे वृक्षों को खा जाते हैं उसी तरह राग, द्वेष और मोह उद्यमी प्राणियों के धर्म को भी मूल में से छेद डालते हैं। मुग्ध लोग वटवृक्ष की भांति इस क्रोध को बढ़ाते हैं कि, जो क्रोध अपने को बढ़ाने वाले ही को जड़ से खा डालता है। हाथी पर चढ़े हुए महावत की तरह मान पर चढ़े हुए लोग भी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। और दूसरों का तिरस्कार करते हैं। माया कोंच की फली की तरह लोगों को संतप्त करती है; परंतु फिर भी लोग माया का परित्याग नहीं करते हैं। तुषोदक से ( चावल की भूसी से) जैसे दुग्ध बिगड जाता है और काजल से जैसे निर्मलसफेद वस्त्र पर दाग लग जाते हैं वैसे ही, लोभ मनुष्य के गुणों को दूषित करता है। जब तक संसार रूपी काराग्रह में (जेलखाने में) ये चार कषाय रूपी चौकीदार सजग ( खबरदारी से ) पहरा देते हैं तब तक जीव इससे निकलकर मोक्ष में कैसे जा सकता है? अहो ! भूत लगे हुए प्राणी की तरह पुरुष अंगना के (स्त्री के) आलिंगन में व्यग्र रहते हैं और यह नहीं देखते हैं किं, उनका आत्महित क्षीण हो रहा है । औषध से जैसे सिंह को नीरोग करके मनुष्य अपना काल बुलाता है वैसे ही मनुष्य अनेक प्रकार के मादक और कामोद्दीपक पदार्थ सेवन कर उन्मादी बन अपने आत्मा को भवभ्रमण में फँसाते हैं। सुगंध यह है या यह ? मैं किसको ग्रहण करूं? इस तरह सोचता हुआ मनुष्य लंपट होकर भ्रमर की तरह भटकता फिरता है। उनको कभी सुख नहीं मिलता। खिलौने से जैसे बच्चों को भुलाते हैं वैसे ही मनुष्य क्षण भर के लिए मनोहर लगनेवाली वस्तुओं में लुभाकर अपने आत्मा को धोखा देते हैं। निद्रालु पुरुष जैसे शास्त्र के चिंतन से भ्रष्ट होता है वैसे
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 25: