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था। सभी तीर्थंकरों के अंगूठे में इंद्र अमृत रखता है। दूज के चंद्रमा की तरह दोनों राजकुमार बढ़ने लगे।
योग्य आयु होने पर 'सगर' पढ़ने के लिए भेजे गये। तीर्थंकर जन्म ही से तीन ज्ञानवाले होते हैं। इसीलिए महात्मा अजितकुमार उपाध्याय के पास अध्ययन के लिए नहीं भेजे गये।
उनकी बाल्यावस्था समाप्त हुई। जब उन्होंने जवानी में प्रवेश किया। उनका शरीर साढ़े चार सौ धनुष का, संस्थान समचतुरस्र और संहनन 'वज्र ऋषभ नाराच' था। वक्षस्थल में श्री वत्स का चिह्न था। वर्ण स्वर्ण के समान था। उनकी केशराशि यमुना की तरंगों के समान कुटिल और श्याम थी। उनका ललाट अष्टमी के चंद्रमा के समान दमकता था। उनके गाल स्वर्ण के दर्पण की तरह चमकते थे। उनके नेत्र नीले कमल के समान स्निग्ध और मधुर थे। उनकी नासिका दृष्टि रूपी सरोवर के मध्य भाग में स्थित पाल के समान थी। उनके होठ बिंबफल के जोड़े से जान पड़ते थे। सुंदर आवर्त्तवाले कर्ण सीप से मनोहर लगते थे। तीन रेखाओं से पवित्र बना हुआ उनका कंठ शंख के समान शोभता था। हाथी के कुंभस्थल की तरह उनके स्कंध ऊंचे थे। लंबी और पुष्ट भुजाएँ भुजंग का भ्रम कराती थी। उरस्थल स्वर्णशैल की शिला के समान शोभता था। नामि मन की तरह गहन थी। वज्र के मध्य भाग की तरह उनका कटि प्रदेश कृश था। उनकी जांघ बड़े हाथी की सूंड-सी सरल और कोमल थी। दोनों कुमार अपने यौवन के तेज.और शरीर के संगठन से बहुत ही मनोहर दीखते थे। सगर अपने रूप और पराक्रमादि गुणों से मनुष्यों में प्रतिष्ठा पाता, जैसे इंद्र देवों में पाता है। और अजित स्वामी अपने रूप और गुण से, मेरु पर्वत जैसे सारे पर्वतों में अधिक मानद है वैसे ही, देवलोकवासी, ग्रैवेयकवासी और अनुत्तर विमानवासी देवों से एवं आहारक शरीर से भी अधिक माननीय थे।
रागरहित अजित प्रभु को राजा ने और इंद्र ने ब्याह करने के लिए आग्रह किया। प्रभु ने अपने भोगावली कर्म को जान अनुमति दी। इनका ब्याह हुआ। सगर का भी ब्याह हो गया। ये आनंद से सुखोपभोग करने लगे।
जितशत्रु राजा को और उनके भाई सुमित्र को वैराग्य हो आया
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 49 :