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करते हैं। संस्थान उनका ''समचतुरस्त्र' होता है। संहनन उनका 'वज्र ऋषभ नाराच होता है। वे क्रोध-रहित, निरभिमानी, निर्लोभी और अधर्मत्यागी होते हैं। उस समय उनको असि, मसि और कृषि का व्यापार नहीं करना पड़ता है। अकर्म-भूमि के मनुष्यों की भांति ही उन्हें भी उस समय दस कल्पवृक्ष सारे पदार्थ देते हैं। जैसे - १. 'मद्यांग' नामक कल्पवृक्ष मद्य देते 1. संस्थान छ: होते हैं। शरीर के आकार विशेष को संस्थान कहते हैं। १.
सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभ लक्षणयुक्त शरीर को 'समचतुरस्र' संस्थान कहते हैं। २. 'नाभि' के ऊपर का भाग शुभ लक्षण युक्त हो और नीचे का हीन हो उसे 'न्यग्रोध' संस्थान कहते हैं। ३. नाभि के नीचे का भाग यथोचित हो और उपर का हीन हो उसे 'सादी' संस्थान कहते हैं। ४. जहां हाथ, पैर, मुख, गला आदि यथालक्षण हो और छाती, पेट, पीठ आदि विकृत हो उसे 'वामन' संस्थान कहते हैं। ५. जहां हाथ और पैर हीन हो बाकी अवयव उत्तम हो उसे 'कुब्जक' संस्थान कहते हैं। ६. शरीर के समस्त अवयव लक्षण-हीन हो उसे .
'हुंडक' संस्थान कहते हैं। 2. संहनन भी छ: होते हैं। शरीर के संगठन विशेष को संहनन कहते हैं।
१. दो हाड़ दोनों तरफ से मर्कट बंध द्वारा बंधे हों, ऋषभ नाम का तीसरा हाड़ उन्हें पट्टी की तरह लपेटे हो और उन तीनों हड्डियों में एक हड्डी कीली की तरह लगायी हुई हो, वे वज्र के समान दृढ़ हो, ऐसे संहनन को 'वज्र ऋषभ नाराच' कहते हैं। २. उक्त हड्डिया हो; परंतु कीली लगायी हुई न हो उसे 'ऋषभनाराच' संहनन कहते हैं। ३. दोनों ओर हाड़ और मर्कट बंध तो हो; परंतु कीली और पट्टी के हाड़ न हो उसे 'नाराच' संहनन कहते हैं। ४. जहां एक तरफ मर्कटबंध और दूसरी तरफ कीली होती है उसे 'अर्द्धनाराच' संहनन कहते हैं। ५. जहां केवल कीली से हाड़ संधे हुए हो, मर्कट बंध पट्टी न हो उसे 'कीलक' संहनन कहते हैं। ६. जहां अस्थियां केवल एक दूसरे में अड़ी हुई ही हों, कीली, नाराच और ऋषभ न हो; जो जरा सा धक्का लगते ही भिन्न हो जाथ उसे 'छेवटु' संहनन कहते हैं।
: परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका : 302 :