Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 334
________________ जैसे ही बन जाते हैं। प्रभु के मस्तक के चारों तरफ फिरता हुआ शरीर की कांति का मंडल (भामंडल) प्रकट होता है। उसका प्रकाश इतना प्रबल होता है कि उसके सामने सूर्य का प्रकाश भी जुगनु सा मालूम होता है। प्रभु के समीप एक रत्नमय ध्वजा होती है। वैमानिक देवियाँ पूर्व द्वार से प्रवेश करती हैं, तीन प्रदक्षिणा देती हैं और तीर्थंकर तथा तीर्थ को नमस्कार कर प्रथम कोट में, साधु साध्वियों के लिए स्थान छोड़कर उनके स्थान के मध्य भाग में अग्निकोण में खड़ी रहती हैं। भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देवों की देवियाँ दक्षिण दिशा से प्रविष्ट होकर नैऋत्य कोण में खड़ी होती हैं। भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम द्वार से प्रविष्ट होकर वायव्य कोण में बैठते हैं। वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियाँ उत्तर द्वार से प्रविष्ट होकर ईशान दिशा में बैठते हैं। अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी के बैठने के स्थान नियत होते हैं। ये सब भी वैमानिक देवियाँ की स्त्रियों की भाँति ही पहिले प्रदक्षिणा देते . हैं, तीर्थंकर और तीर्थ को नमस्कार करते हैं और तब अपना स्थान लेते है। वहाँ पहिले आये हए-चाहे वे महान ऋद्धिवाले हों या अल्प ऋद्धिवाले हों जो कोई पीछे से आता है उसे नमस्कार करते है और पीछे से आनेवाला पहले से आकर बैठे हुओं को नमस्कार करता है। प्रभु के समवसरण में किसी को, आने की; कोई रोकटोक नहीं होती। वहाँ पर किसी तरह की विकथा (निंदा) नहीं होती; विरोधियों के मन में वहाँ वैरभाव नहीं रहता; वहाँ किसी को किसी का भय नहीं होता। दूसरे कोट में तिर्यंच आकर बैठते हैं और तीसरे गढ. में सबके वाहन रहते हैं। ५. निर्वाणकल्याणक। जब तीर्थंकरों के शरीर से आत्महंस उड़कर मोक्ष में चला जाता है, तब इन्द्रादि देव शरीर का संस्कार करने के लिए आते हैं। आभियौगिक देव नंदनवन में से गोशीर्ष चंदन के काष्ठ लाकर पूर्व दिशा में एक गोलाकार चिता रचते हैं। अन्य देवता क्षीरसमुद्र का जल लाते हैं। इससे इन्द्र भगवान के शरीर को स्नान कराता है, गोशीर्ष चंदन का लेप करता है, हंसलक्षणवाले श्वेत देवदुष्य वस्त्र से शरीर को आच्छादन करता है और मणियों के आभूषणों से उसे विभूषित करता है। दूसरे देवता भी इन्द्र : श्री तीर्थंकर चरित्र : 321 :

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