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१. जिनसे उपद्रवों का नाश होता है उन्हें 'अपायापगमातिशय' कहते
हैं। ये दो प्रकार के होते हैं। स्वाश्रयी और पराश्रयी। (अ) जिनसे अपने संबंध के अपाय-उपद्रव द्रव्य' से और भाव से नष्ट होते हैं वे 'स्वाश्रयी' कहलाते है। (ब) जिनसे दूसरों के उपद्रव नष्ट होते हैं उनको 'पराश्रयी' अपायापगमातिशय कहते हैं। अर्थात जहाँ भगवान विचरण करते हैं वहाँ से प्रत्येक दिशा में पच्चीस योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर,
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल आदि उपद्रव नहीं होते हैं। २. ज्ञानातिशय-इससे तीर्थंकर लोकालोक का स्वरूप भली प्रकार से
जानते हैं। भगवान को केवल ज्ञान होता है, इससे कोई भी बात
उनसे छिपी हुई नहीं रहती हैं। ३. पूजातिशय-इससे तीर्थंकर सर्वपूज्य होते हैं। देवता, इन्द्र, राजा, .
महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि सभी भगवान की पूजा
करते हैं। ... ४. वचनातिशय-इससे देव, तिर्यंच और मनुष्य सभी भगवान की वाणी
को अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं। इसके ३५ गुण होते हैं। (जिनका वर्णन तेरहवें अतिशय के फुट नोट में किया जा चुका है।) ये चार मूलातिशय कहलाते हैं। ,
एक बार भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती भरत के प्रश्न करने पर प्रभु ने कहा कि, इस अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में मेरे बाद तेईस तीर्थंकर होंगे और तेरे बाद ११ चक्रवर्ती तथा ६ वासुदेव ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे।
1. सारे रोग द्रव्य उपद्रव हैं। 2. अंतरंग के अठारह दूषण भाव उपद्रव हैं। अठारह उपद्रव-दोष ये हैं- १.
दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय ५. वीन्तिराय ६. हास्य ७. रति ८. अरति ९. शोक १०. भय ११. जुगुप्सा-निंदा १२. काम १३. मिथ्यात्व १४. अज्ञान १५. निद्रा १६. अविरति १७. राग और १८. द्वेष।
: अतिशय : 326 :