________________
द्वारपाल होकर रहते हैं। दक्षिण द्वार में दो व्यंतर देव द्वारपाल होते हैं। पश्चिम द्वार पर रक्तवर्णी दो ज्योतिष्क देव द्वारपाल होते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों संध्या के समय सूर्य और चंद्रमा आमने सामने आ खड़े हुए हैं। उत्तर द्वार पर कृष्ण काय भुवनपति द्वारपाल होकर रहते हैं। दूसरे कोट के चारों द्वारों पर, क्रमशः अभय, पास, अंकुश और मुदगर को धारण करनेवाली श्वेतमणि, शोणमणि, स्वर्णमणि और नीलमणि के समान कांतिवाली, पहिले ही की तरह चार निकाय की (चार जातिकी) जया, विजया, अजिता और अपराजिता नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहार (चोबदार) बनकर खड़ी रहती हैं।
और अंतिम कोट के चारों दरवाजों पर तुंबर, खट्वांधधारी, मनुष्य-मस्तकमालाधारी और जटा मुकटमंडित नामक चार देवता द्वारपाल होते हैं। समवसरण के मध्य भाग में व्यंतर देव तीन कोस का ऊँचा एक चैत्य-वृक्ष बनाते हैं। उस वृक्ष के नीचे विविध रत्नों की एक पीठ रची जाती हैं। उस . पीठ पर अप्रतिम मणिमय एक छंदक (बैठक) रची जाती है। छंदक के मध्य में पाद पीठ सहित रत्नसिंहासन रचा जाता है। सिंहासन के दोनों बाजू दो यक्ष चामर लेकर खड़े होते हैं। समवसरण के चारों द्वार पर अद्भुत कांति के समूहवाला एक एक धर्मचक्र स्वर्ण के कलश में रखा जाता है।
भगवान चार प्रकार के वैमानिक, भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देवताओं से परिवेष्टित समवसरण में प्रवेश करने को रवाना होते हैं। उस समय सहस्र पत्रवाले स्वर्ण के नौ कमल बनाकर देवता भगवान के आगे रखते हैं। भगवान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे धरते जाते हैं। भगवान पूर्व द्वार से समवसरण में प्रविष्ट होकर चैत्य-वृक्ष की प्रदक्षिणा करते हैं और फिर तीर्थ को! नमस्कार कर सूर्य जैसे अंधकार को नष्ट करने के लिए पूर्वासनपर आरूढ होता है वैसे ही मोह रूपी अंधकार को छेदने के लिए प्रभु पूर्वाभिमुख सिंहासन पर विराजते हैं। तब व्यंतर अवशेष तीन तरफ भगवान के रत्न के तीन प्रतिबिंब बनाते हैं। यद्यपि देवता प्रभु के अंगूठे जैसा रूप बनाने की भी शक्ति नहीं रखते हैं तथापि प्रभु के प्रताप से उनके बनाये हुए प्रतिबिंब प्रभु के स्वरूप 1. साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाके समूह को तीर्थ कहते हैं।
: पंच कल्याणक : 320 :