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तब लोकान्तिक देव 'तीर्थ प्रवर्तावो' ऐसी विनती करते है फिर तीर्थंकर वरसी दान देते हैं। इसमें एक वर्ष तक तीर्थंकर याचकों को जो चाहिए सो देंते हैं। नित्य एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं जितना दान देते हैं। एक वर्ष में कुल मिलाकर तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में देते हैं। यह धन इन्द्र की आज्ञा से कुबेर भूमि आदि में गाड़ा हुआ बीन वारसी धन लाकर पूरा करता है।
जब दीक्षा का दिन आता है तब इन्द्रों के आसन चलित होते हैं। इन्द्र भक्तिपूर्वक प्रभु के पास आते हैं और एक पालकी तैयारकर भगवंत को उसमें बैठाते हैं। फिर मनुष्य और देव सब मिलकर पालखी उठाते हैं, प्रभु को वन में ले जाते हैं। प्रभु वहाँ सब वस्त्रालंकार उतारकर डाल देते हैं और इन्द्र देवदुष्य वस्त्र उनके ( प्रभु के ) स्कंध पर रखते हैं । फिर वे केशलुंचन करते हैं। सौधर्मेन्द्र उन केशों को अपने पल्लों में ग्रहण कर क्षीर-समुद्र में. डाल आता है। तीर्थंकर फिर सावद्ययोग का त्याग करते हैं। अर्थात् 'करेमि सामाइयं' सूत्र द्वारा प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर स्वयं बुद्ध होने से भंते शब्द का प्रयोग नहीं करते। उसी समय उन्हें 'मनः पर्यवज्ञान'' उत्पन्न होता है। इन्द्रादि देवता प्रभु से विनती करते हैं और अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। तीर्थंकर विहार करने लगते हैं। .
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४. केवलज्ञान-कल्याणक । सकलं संसार की समस्त चराचर की बात जिस ज्ञान द्वारा मालूम होती है उसे केवलज्ञान कहते हैं। जिस दिन यह ज्ञान उत्पन्न होता हैं, उसी दिन से, तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है। और तीर्थ की स्थापना करते हैं। जब यह ज्ञानं उत्पन्न होता है तब इन्द्रादि देव आकर उत्सव करते हैं। और प्रभु की धर्मदेशना सुनने के लिए समवसरण की रचना करते हैं। इसकी रचना देवता मिलकर करते हैं। यह एक योजन के विस्तार में रचा जाता है। वायुकुमार देवता भूमि साफ करते हैं। मेघकुमार देवता सुगंधित जल बरसाकर छिड़काव लगाते हैं। व्यंतर देव स्वर्ण-मणि और रत्नों से फर्श बनाते हैं; पंचरंगी फूल बिछाते हैं, और रत्न, मणि और मोतीयों के चारों तरफ तोरण बाँध देते हैं। रत्नादि की पुतलियाँ 1. इस ज्ञान के होने से पंचेन्द्रिय जीवों के मन की बात मालूम होती है।
पंचकल्याणक : 318 :