Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 317
________________ २. सुषमा - यह आरा तीन कोटाकोटि सागरोपम का होता है। उसमें मनुष्य दो पल्योपम की आयुवाले, दो कोस ऊंचे शरीरवाले और तीन दिन में एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इसमें कल्प वृक्षों का प्रभाव भी कुछ कम हो जाता है। पृथ्वी के स्वाद में भी कुछ कमी हो जाती है और जल का माधुर्य भी कुछ घट जाता है। इसमें सुख की प्रबलता रहती है। दुःख भी रहता है मगर बहुत. थोड़ा। ३. सुषमा दुःखमा - यह आरा दो कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इसमें मनुष्ये एक पल्योपम की आयुवाले, एक कोस ऊंचे शरीरवाले और दो दिन में एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इस आरे में भी ऊपर की तरह प्रत्येक पदार्थ में न्यूनता आती जाती है। इसमें सुख और दुःख दोनों का समान रूप से दौरादौरा रहता है। फिर भी प्रमाण में सुख ज्यादा होता है। ४. दुःखमा सुषमा - यह आरा बयालीस हजार कम एक कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इसमें न कल्पवृक्ष कुछ देते हैं न पृथ्वी स्वादिष्ट होती है और न जल में ही माधुर्य रहता है। मनुष्य एक करोड़ पूर्व आयुष्यवाले और पांचसौ धनुष ऊंचे शरीरवाले होते हैं। इसी आरे से असि, मसि और कृषि का कार्य प्रारंभ होता है। इसमें दुःख और सुख की समानता रहने पर भी दुःख प्रमाण में ज्यादा होता है। ५. . दुःखमा - यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का होता है। इसमें मनुष्य सात हाथ ऊंचे शरीरवाले और सौ वर्ष की आयु वाले होते हैं। - इसमें केवल दुःख का ही दौरादौरा रहता है। सुख होता है मगर बहुत ही थोड़ा। ६. एकांत दुखमा - यह भी इक्कीस हजार वर्ष का ही होता है। इसमें मनुष्य प्रारंभ में दो हाथ एवं २० वर्ष की आयु वाले बाद में घटते : परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका : 304 :

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