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अशोका नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों को प्रणाम कर हाथों में पंखे ले गीत गाती हुई उत्तर दिशा में खड़ी हो जाती हैं।
फिर ईशान, अग्नि, वायव्य और नैऋत्य विदिशाओं के अंदर रहनेवाली १. चित्रा, २. चित्रकनका, ३. सतेरा और ४. सूत्रामणि नामकी दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों को नमस्कार कर, अपनी अपनी विदिशाओं में दीपक लेकर गीत गाती हुई खड़ी होती हैं।
इन सबके बाद रुचक द्वीप से १. रूपा, २. रूपासिका, ३. सुरूपा और ४. रूपकावती नामकी चार दिक्कुमारियाँ आती हैं। फिर भगवान के जन्मगृह के पास ही पूर्व, दक्षिण और उत्तर में तीन कदली गृहं बनाती हैं। प्रत्येक गृह में विमानों के समान सिंहासन सहित विशाल चौक रचती हैं। फिर भगवान को अपने हाथों में उठा, माता को चतुर दासी की भाँति सहारा दे, दक्षिण के चौक में ले जाती हैं। दोनों को सिंहासन पर बिठाती हैं और लक्षपाक तैल की मालिश करती हैं। वहाँ से उन्हें पूर्व दिशा के चौक में ले जाकर सिंहासन पर बिठाती हैं, स्नान करवाती हैं, सुगंधित काषायं वस्त्रों से उनका शरीर पौंछती हैं, गोशीर्ष चंदन का विलेपन करती हैं और दोनों को दिव्य वस्त्र तथा विद्युत्प्रकाश के समान विचित्र आभूषण पहनाती हैं। तत्पश्चात् वे दोनों को उत्तर के चौक में ले जाकर सिंहासन पर बिठाती हैं। वहाँ वे आभियोगिक देवताओं के पास से क्षुद्र हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदन का काष्ठ मँगवाती हैं। अरणिकी दो लकड़ियों से अग्नि उत्पन्न कर होम के योग्य तैयार किये हुए गोशीर्ष चंदन के काष्ठ से होम करती हैं। उससे जो भस्म होती है उसकी रक्षापोटली कर वे दोनों के हाथों में बाँध देती हैं। यद्यपि प्रभु और उनकी माता महामहिमामय ही हैं, तथापि दिक्कुमारियों का ऐसा भक्तिक्रम है, इसलिए वे करती ही हैं। तत्पश्चात् वे भगवान के कान में कहती हैं,- 'तुम दीर्घायु होओ।' फिर पाषाण के दो गोलों को पृथ्वी में पछाड़ती हैं। तब दोनों को वहाँ से सूतिका गृह में ले जाकर सुला देती हैं और गीत गाने लगती हैं।
दिक्कुमारियाँ जिस समय उक्त क्रियायें करती हैं। उसी समय स्वर्ग में इन्द्र का सिंहासन कंपता है और सौधर्मेन्द्र सुघोषा घंटा बजवाता है। अन्य
: पंच कल्याणक : 312 :