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कमठ बोला – 'राजकुमार तुम घोड़े कुदाना और ऐयाशी करना जानते हो। धर्म के तत्त्व को क्या समझो? और मुझ पर जीवों को मारने का दोष लगाना तो तुम्हारी अक्षम्य धृष्टता है!'
पार्श्वकुमार ने अपने आदमी को आज्ञा दी – 'इस धूनी में से वह लक्कड़ निकालकर चीर डालो।' नौकर ने आज्ञा का पालन किया। उसमें से एक तड़पता हुआ सांप निकला। कुमार ने उसको नवकार मंत्र सुनवाया और पच्चक्खाण दिलाया। सर्प मरकर नवकार मंत्र के प्रभाव से भुवनपति की नागकुमार निकाय में, धरणेन्द्र नाम का देव हुआ।
इस घटना से कमठ की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा। इससे वह पार्श्वकुमार पर मन ही मन नाराज हुआ और अधिक घोर तप करने लगा। मगर अज्ञान तप के कारण उसे सम्यग ज्ञान न हुआ और अंत में मरकर भुवनवासी देवों की मेघकुमार मिकाय में मेघमाली नाम का देव हुआ।
एक दिन लोकांतिक देवों ने आकर विनती की – 'हे प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए।' प्रभु ने अपने भोगावली कर्मों को पूरे हुए जान वरसीदान दिया। वरसीदान समाप्त हुआ तब इंद्रादि देवों ने और अश्वसेन आदि राजाओं ने पार्श्वकुमार का दीक्षाभिषेक किया। फिर देव और मनुष्य हजार व्यक्ति जिसे उठाकर ले जा सकें ऐसी विशाल नाम की पालकी (शिबिका) में बैठकर प्रभु आश्रमपद नामक उद्यान में आये। वहां सारे वस्त्राभूषणों को त्याग, पंचमुष्टी लोच कर; प्रभु ने पोष वदि ग्यारस के दिन चंद्र जब अनुराधा नक्षत्र में था दीक्षा ली। तीन सौ राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। सभी तीर्थंकरों को दीक्षा लेते ही मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक मनाया।
दूसरे दिन कोपट गांव में धन्य नामक गृहस्थ के घर पायसान्न (खीर) से पारणा किया। देवताओं ने उसके यहां वसुधारादि पंच दिव्य प्रकट किये।
प्रभु ने अनेक गांवों और शहरों में विचरण करते हुए किसी शहर की 1. अन्य कथाओं में उसे इंद्र बना कर भी लिखा है।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 189 :