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यानी जो हल्का है वह ऊंचा हो जायगा और जो ऊंचा है वह हल्का हो जायगा। इस तरह श्वेत ध्वजावाले ( ? ) जहाजों की तरह सभी चलित हो जायेंगे (अपने कर्तव्य को भूल जायेंगे ।) चोर चोरी से, अधिक भूत क बाधावा मनुष्य की तरह उद्दंडता एवं रिश्वत से और राजा करके बोझे से प्रजा को सताएँगे। लोग स्वार्थ-परायण, परोपकार से दूर, सत्य, लज्जा या दाक्षिण्य (मर्यादा) हीन और अपनों ही के वैरी होंगे। न गुरु शिष्य को शिष्य की तरह समझेगा न शिष्य ही गुरुभक्ति करेगा। गुरु शिष्यों को उपदेशादि ( और आचरण द्वारा) श्रुतज्ञान नहीं देगे। क्रमशः गुरुकुल का निवास बंद होगा, धर्म में अरुचि होगी और पृथ्वी बहुत से प्राणियों से आकुल व्याकुल हो जायेगी। देवता प्रत्यक्ष नहीं होंगे, पिता की पुत्र अवज्ञा करेंगे, बहुएँ सर्पिणी सी आचरण करेंगी । और सासुएँ कालरात्रि के जैसे प्रचंड होंगी। कुलीन स्त्रियाँ भी लज्जा छोड़कर भ्रूभंगी से, हास्य से, आलाप से अथवा दूसरी तरह के हावभावों और विलासों से वेश्या जैसी लगेंगी। श्रावक और श्राविकापन, का हास होगा, चतुर्विध धर्म का क्षय होगा और साधु साध्वियों को पर्व के दिन भी या स्वप्न में भी निमंत्रण नहीं मिलेगा। खोटे माप तील चलेंगे। धर्म में भी शठता होगी। सत्पुरुष दुःखी और दुष्ट पुरुष सुखी रहेंगे। मणि, मंत्र, औषध, तंत्र, विज्ञान, धन, आयु, फल, पुष्प, रस, रूप, शरीर की ऊंचाई और धर्म एवं दूसरे शुभ भावों की पांचवें आरे में दिन प्रति दिन हानि होगी । और उसके बाद छट्टे आरे में तो और भी अधिक हानी होगी।
'इस तरह पुण्यक्षय वाले काल के फैलने पर जिस मनुष्य की बुद्धि धर्म में होगी वह धन्य होगा। इस भरतक्षेत्र में दुःखमा काल के अंतिम भाग में दुःप्रसह नाम के आचार्य, फल्गुश्री नामा साध्वी, नायल नामक श्रावक और सत्यश्री नामा श्राविका, विमलवाहन नामक राजा और सुमुख नामक मंत्री होंगे। उस समय शरीर दो हाथ का, उम्र ज्यादा से ज्यादा बीस बरस की होगी। तप उत्कृष्ट छट्ट का होगा। दशवैकालिक का ज्ञान रखनेवाले चौदह पूर्वधारी समझे जायेंगे। और ऐसे मुनि दुःप्रसह सूरि तक संघ रूप तीर्थ को : श्री तीर्थंकर चरित्र : 291 :