________________
हड्डियां थीं, इसलिए उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा गया। यही इस चौबीसी में प्रथम वासुदेव हुआ है। [यह अठारहवाँ भव है ] राजकुमार अचल अपने भाई को खेलाता और आनंद से दिन बिताता । त्रिपृष्ठ बड़ा हुआ और दोनों भाइयों गाढ़ी प्रीति हो गयी। बड़े सुख से त्रिपृष्ठ बाल्यकाल को व्यतीत कर युवावस्था को प्राप्त हुआ। जब वह जवान हुआ तब उसका शरीर प्रमाण अस्सी धनुष था।
उस तरफ़ रत्नपुर नगर के मयूरग्रीव नामक राजा की नीलांजना नामक रानी के गर्भ से अवग्रीव नामक प्रति वासुदेव का भी जन्म हो चुका था। वह बड़ा पराक्रमी एवं रणनिपुण था। धीरे-धीरे उसकी वीरता की धाक सब राजाओं पर बैठ गयी थी । प्रायः सभी राजा उसके आधीन हो गये थे। समय पर प्रति वासुदेव का चक्र भी उसकी आयुधशाला में उत्पन्न हुआ था। उसके प्रभाव से अवग्रीव ने भरत क्षेत्र के तीन खंडों पर विजय पताका फहरा दी थी। मागध वरदाम आदि तीर्थदेवों से भी उससे अपना आधिपत्य स्वीकार कराया था।
एक बार उसने अवबिन्दु नामक नैमित्तिक को बुलाकर अपना भविष्य पूछा। अञ्चबिन्दु ने बड़ी आनाकानी के बाद कहा राजन्! आपके चंडवेग नामक दूत को जो पीटेगा और तुंगगिरि में रहनेवाले केसरी सिंह को जो मार डालेगा उसी के हाथ से आपकी मौत होगी।' यह सुनकर अवग्रीव बड़ा चिंतित हुआ। उसने शत्रु का पता लगाने के लिए तुंगगिरि के पास शंखपुरं प्रदेश में शाली के खेत तैयार कराये और उनकी रक्षा करने के लिए वह अपने अधीनस्थ राजाओं को भेजने लगा।
/
एक बार उसको पता लगा कि, पोतनपुर के दो राजकुमार बड़े बलवान हैं। उसे वहेम हुआ कि कहीं वे ही तो मेरे शत्रु नहीं है। उसने उनकी जांच करने के लिए अपने दूत चंडवेग को भेजा। चंडवेग बड़ा वीर पुरुष था। वह अपने दलबल सहित पोतनपुर पहुंचा और सीधा प्रजापति की राजसभा में चला गया। महाराज उस समय समस्त दरबारियों और दोनों राजकुमारों के साथ संगीत की मधुर ध्वनि सुनने में मग्न थे। चंडवेग के अचानक सभा में प्रवेश करने से राग रंग बंद हो गये, सभा में सन्नाटा छा
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 201 :
——