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वैशाली में विहारकर प्रभु अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए सुसुमारपुर में आये और अष्टम तप सहित एक रात्रि की प्रतिमा धार अशोक खंड नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे स्थित हुए। यहां चमरेन्द्र ने प्रभु की शरण में आकर अपना जीवन बचाया।
दूसरे दिन प्रतिमा त्यागकर क्रमशः विहार करते हुए प्रभु भोगपुर नाम के नगर में आये। उसी गांव में माहेन्द्र नाम का कोई क्षत्रिय रहता था। उसे प्रभु को देखकर ईर्ष्या हुई। वह उन्हें लकड़ी लेकर मारने चला। उसी समय वहां सनत्कुमारेन्द्र आया था। उसने माहेन्द्र को धमकाया। फिर वह प्रभु को वंदन कर चला गया।
भोगपुर से विहार कर प्रभु नंदी गांव और मेढक गांव होकर कोशांबी नगरी में आया। उस दिन पोष वदि एकम का दिन था। प्रभु ने भीषण नियम लिया – कठोर अभिग्रह किया, कोई सती राजकुमारी हो, किसी का दासीपन उसे मिला हो, उसके पैरों में बेड़ी हो, सिर मुंडा हुआ हो, सूप में उड़द के बाकले लेकर, रोती हुई एक पैर देहलीज के अंदर और एक बाहर रखे हुए मुझे आहार देने को तैयार हो उसीसे मैं आहार लूंगा। आहार के लिए फिरते हुए करीब छ: महीने गुजर गये तब प्रभु का अभिग्रह पूरा हुआ। उन्होंने बिना आहार छ: महीने में पांच दिन रहे तब ज्येष्ठ सुदि ११ के दिन, 1. बिभेल नामक गांव में एक धनिक रहता था। उसने लक्ष्मी का त्यागकर बालतप किया। उसके प्रभाव से, मरकर वह चमरचंचा नगरी में एक सागरोपम की आयुवाला. इंद्र हुआ। उसने अवधि ज्ञान से अपने से अधिक वैभवशाली और सत्ताधारी शकेन्द्र को देखा। इस पर चमरेन्द्र को ईर्ष्या हुई। वह शकेन्द्र से लड़ने सौधर्म देवलोक में गया। शकेन्द्र ने उस पर वज्र चलाया। वज्र को आते देख चमरेन्द्र भागा। वज्र ने उसका पीछा किया। शकेन्द्र भी उसके पीछे चला। चमरेन्द्र लघु रूप धारकर प्रभु के पैरों के बीच में छिप गया। शकेन्द्र ने अपने
वज्र को पकड़ लिया और चमरेन्द्र को प्रभु-शरणागत समझकर क्षमा कर दिया। 2. यह मिति पोस वदि १ से छ: महीने में पांच दिन कम यानी पांच महीने और
पच्चीस दिन की गिनती कर लिखी गयी है।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 247 :