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इंद्रभूति के छोटेमाई अग्निभूति ने सुना कि इंद्रभूति महावीर का शिष्य हो गया है तो उसे बड़ा क्रोध आया। वह भी अपने पांच सौ शिष्यों को साथ ले महावीर को परास्त करने गया। मगर समवसरण में पहुंचने पर उसका दिमाग भी ठंडा हो गया। महावीर बोले – 'हे अग्निभूति! तुम्हारे मन में शंका है कि कर्म हैं या नहीं?' अगर कर्म हो तो वह प्रत्यक्षादि प्रमाण से अगम्य और मूर्तिमान है। जीव अमूर्त है। अमूर्त जीव मूर्तिमान कर्म को कैसे बांध सकता है?'
. तुम्हारी यह शंका निर्मूल है। कारण, अतिशय ज्ञानी पुरुष तो कर्म की सत्ता प्रत्यक्ष जान सकते हैं; परंतु तुम्हारे समान छद्मस्थ भी अनुमान से इसे जान सकते हैं। कर्म की विचित्रता से ही संसार में असमानता है। कोई धनी है और कोई गरीब; कोई राजा है और कोई रैयत; कोई मालिक है और कोई नौकर; कोई नीरोग है और कोई रोगी। इस असमानता का कारण एक कर्म ही है।
अग्निभूति के हृदय की शंका मिट गयी और वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य हो गये। - 'मेरे दोनों भाइयों को हरानेवाला अवश्य सर्वज्ञ होगा' यह सोच, वायुभूति शांत मन के साथ अपने शिष्यों के साथ समवसरण में गया और प्रभु को नमस्कार कर बैठा। महावीर बोले – 'हे वायुभूति! तुम्हें जीव और शरीर के संबंध में भ्रम है। प्रत्यक्षादि प्रमाण जिसे ग्रहण नहीं कर सकते वह जीव शरीर से भिन्न कैसे हो सकता है? जैसे पानी से बुदबुदा उठता है और वह पानी ही में लीन हो जाता है वैसे ही जीव भी शरीर ही से पैदा होता है और उसीमें लीन हो जाता है। मगर तुम्हारी धारणा मिथ्या है। कारण –
यह जीव देश से प्रत्यक्ष है। इच्छा वगैरा गुण प्रत्यक्ष होने से जीव स्वसंविद् है यानी उसका खुद को अनुभव होता है। जीव देह और इंद्रिय से भिन्न है। जब इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं तब वह इंद्रियों के अर्थ को स्मरण करता है और शरीर को छोड़ देता है।
__ वायुभूति का संदेह जाता रहा और उसने भी अपने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली।
: श्री महावीर चरित्र : 258 :