________________
में योगी की तरह स्थिर रहुं। गर्म का हिलना बंद होने से त्रिशलादेवी को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने समझा कि, मेरा गर्भ नष्ट हो गया है। वे रोने लगी। सारे मुहल्लों में यह खबर फैल गयी। सिद्धार्थ आदि सभी दुःखी हुए। गर्भस्थ अवधिज्ञानी प्रभु ने माता-पिता का दुःख जानकर अपना अंगस्फूरण किया। गर्भ कायम जानकर माता पिता को और सभी लोगों को बड़ा आनंद हुआ। माता-पिता ने आनंद के अतिरेक में लाखों लुटा दिये। प्रभु ने गर्भवास ही में माता-पिता का अधिक स्नेह देखकर नियम किया कि जब-तक मातापिता जीवित रहेंगे तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। अगर मैं दीक्षा लूंगा तो इन्हें दुःख होगा और ये असाता वेदनी कर्म बांधेगे।
चैत्रसुदि १३ के दिन आधी रात के समय, गर्भ को ज़ब ६ महीने और साढ़े सात दिन बीत चुके थे और चंद्र जब हस्तोत्तरा (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र में आया था तब 'त्रिशलादेवी ने, सिंह लक्षणवाले पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस समय भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियों ने आकर प्रभु का और माता का सूतिका कर्म किया।
सौधर्मेन्द्र का आसन कांपा। वह प्रभु का जन्म जानकर परिवार सहित सूतिका गृह में आया। उन्होंने दूर ही से प्रभु को और माता को प्रणाम किया. फिर इंद्र ने देवी को अवस्वापनिका निद्रा में सुलाया, माता की बगल में प्रभु का प्रतिबिंब रखा और प्रभु को उठा लिया।
उसके बाद इंद्र ने अपने पांच रूप बनाये। एक रूप ने प्रभु को गोद में लिया, दूसरे रूप ने प्रभु पर छत्र रखा, तीसरे और चौथे रूप दोनों तरफ चंवर उड़ाने लगे और पांचवां रूप वज्र उछालता और नाचता कूदता आगे चला। इस तरह सौधर्मेन्द्र प्रभु को लेकर सुमेरु पर्वत पर पहुंचा। और वहां अतिकंबला नाम की शिला के शावत सिंहासन पर बैठा। दूसरे तरसठ इंद्र भी अपने आधीन देवताओं के साथे, स्नात्र कराने के लिए वहां आ पहुंचे।
__ आभियोगिक देव तीर्थजल ले आये और सब इंद्रों ने, इंद्राणियों ने और सामानिक देवों ने अभिषेक किया। सब दो सौ पचास अभिषेक हुए। एक 1. त्रिशलादेवी वैशाली के लिच्छवी राजा चेटक की बहिन थीं।
: श्री महावीर चरित्र : 208 :