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उसमें विद्युद्गति नाम का खेचर राजा था। उसकी रानी कनकतिलका के गर्भ से, मरुभूति का जीव देवलोक से च्यवकर, पैदा हुआ। मातापिता ने उसका नाम किरणवेग रखा। युवा होने पर पद्मावती आदि राजकन्याओं से उसका ब्याह किया गया। कुछ काल के बाद विद्युद्गति ने किरणवेग को राज्य देकर दीक्षा ले ली।
किरणवेग की पट्टरानी पद्मावती के गर्भ से किरणतेज नाम का पुत्र पैदा हुआ। एक बार सुरगुरु नामक मुनि उस तरफ आये। उनकी देशना सुनकर किरणवेग को वैराग्य हो आया और उसने दीक्षा ले ली।
किरणवेग मुनि अंगधारी हुए। गुरु की आज्ञा लेकर एकल विहार करने लगे। अपनी आकाशगमन की शक्ति से वे पुष्कर द्वीप में गये। वहां शाश्वत अर्हतों को नमस्कार कर वैताढ्य गिरि के पास हेमगिरि पर्वत पर तीव्र तप करते हुए समता में मग्न रहकर अपना काल बिताने लगे।
__कमठ का जीव पांचवें नरक से निकल कर उसी हिमगिरि की गुफा में एक भयंकर सर्प के रूप में जन्मा था। वह यमराज की तरह प्राणियों का नाश करता हुआ वन में फिरने लगा। एक वक्त वह फिरता हुआ उस गुफा में चला गया जहां किरणवेग मुनि ध्यान में लीन थे। उन्हें देखकर उसे पूर्व जन्म कां वैर याद आया। उसने उनको लिपट कर चार पांच जगह शरीर में काटा। उनके सारे शरीर में भयंकर जहर व्याप्त हो गया। - मुनि सोचने लगे – 'यह सर्प मेरा बड़ा उपकार करनेवाला है। मुझे
जल्दी या देर में अपने कर्म काटने ही थे। इस सर्प ने मुझे मेरे कर्म काटने में बड़ी मदद की है। उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनि के जीवों को खमाया
और चारों आहारों का त्याग कर दिया। कुछ देर के बाद वे ऐसे मूर्छित हुए. कि फिर न उठे। पांचवां भव (देवलोक में देव) :
मरुभूति का जीव किरणवेग के भव में शुभ भावों से आयु पूर्ण कर और बारहवें देवलोक में जंबूद्रुमावत नाम के विमान में बाईस सागरोपम की आयुवाला देवता हुआ और सुख भोगने लगा।
- कमठ का जीव महासर्प की योनि में जलकर मरा और तमः – प्रभा
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 177 :