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राजा प्रसेनजित ने अपने को यवन के सामने लड़ने में असमर्थ पा उत्तर दिया - 'मैं एक महिने के बाद आपको निश्चित जवाब दूंगा।' और मुझे आपके पास रवाना किया। राजा यवन ने शहर को इस तरह घेर रखा है कि, एक परिंदा भी न अंदर जा सकता है और न बाहर निकल सकता है। मैं बड़ी कठिनता से आपके पास आया हूं। मेरा नाम पुरुषोत्तम है और राजा का मैं मित्र हूं। अब आपको जो ठीक जान पड़े सो कीजिए।'
राजदूत की बातें सुनकर अश्वसेन बड़े क्रुद्ध हुए और बोले – 'यवन की यह मजाल कि, मेरी पुत्रवधू को रोक रखे। मैं उस दुष्ट को दंड दूंगा। सेनापति जाओ! मेरी फौज तैयार करो! मैं आज ही रवाना होऊंगा।'
पवनवेग से सारे शहर में यह बात फैल गयी। लोग यवन राजा के कृत्य को अपना अपमान समझने लगे और शहर के कई ऐसे लोग भी जो सिपाही न थे सिपाही बनकर लड़ाई में जाने को तैयार हो गये।
जब पार्श्वकुमार को ये समाचार मिले तो वे अपने पिता के पास आये और बोले - 'पिताजी! आपको एक मामूली राजा पर चढ़ाई करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसों के लिए आपका पुत्र ही काफी है। आप यही आराम कीजिए और मुझे आज्ञा दीजिए कि, मैं जाकर उसे दंड दूं।'
. बहुत आग्रह के कारण पिता ने पार्श्वकुमार को युद्ध में जाने की आज्ञा दी। पार्श्वकुमार हाथी पर सवार होकर रवाना हुए। पहले पड़ाव पर इंद्र का सारथी रथ लेकर आया और उसने हाथ जोड़कर विनती की - 'स्वामिन्! यद्यपि आप सब तरह से समर्थ हैं, किसी की सहायता की आपको जरूरत नहीं है, तथापि अपनी भक्ति बताने का मौका देखकर महाराज इंद्र ने अपना संग्राम करने का रथ आपकी सेवा में भेजा है और मुझे सारथी बनने की आज्ञा दी है। आप यह सेवा स्वीकार कर हमें उपकृत कीजिए।'
___ पार्थकुमार ने इंद्र की यह सेवा स्वीकार की। उसी रथ में बैठकर वे आकाशमार्ग से कुशस्थल को गये। उनकी सेना भी उनके साथ ही पहुंची। देवताओं ने पार्श्वकुमार की छावनी में इनके रहने के लिए एक सात मंजिल . का महल तैयार कर दिया।
पार्श्वकुमार ने अपना एक दूत राजा यवन के पास भेजा। उसने
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 185 :