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अश्वसेन राजा को पुत्र जन्म के समाचार मिले। उन्होंने लाखों लुटा दिये, कैदी छोड़ दिये और जिसने जो मांगा उसको वही दिया। एक बार जब बालक गर्भ में था तब वामादेवी सो रही थीं और उनके पास से एक भयंकर सर्प किसी को कष्ट पहुंचाये बिना फुत्कार करता हुआ निकल गया था, इसलिए माता-पिता ने पुत्र का नाम पार्श्व रखा।
क्रमशः वे जवान हुए। आनंद से दिन बिताने लगे।
एक दिन राजा अश्वसेन राजसभा में बैठे थे, उसी समय उन्हें किसी बाहरी राजदूत के आने की सूचना मिली। राजा ने उसको अंदर बुलाया और उचित सम्मान देकर पूछा – 'तुम कौन हो और यहां किस लिये आये हो?'
राजदूत ने उत्तर दिया – 'मैं कुशस्थल नगर से आया हूं। वहां पहले नरवर्मा नाम के राजा राज्य करते थे। उन्होंने संसार को असारं जानकर अपने पुत्र प्रसेनजित को राज गद्दी दी और खुद ने दीक्षा ले ली। राजा प्रसेनजित के एक कन्या है। उसका नाम प्रभावती है। प्रभावती ने एक बार बनारस के राजकुमार पार्श्वनाथ के रूप लावण्य की तारीफ सुनी और उसने अपना जीवन इनके चरणों में अर्पण करने का संकल्प कर लिया। वह रात दिन उन्हीं के ध्यान में लीन हो आनंदोल्लास छोड़ एक त्यागिनी की तरह जीवन बिताने लगी। राजा प्रसेनजित को जब ये समाचार मिले तो उसने प्रभावती को स्वयंवरा की तरह बनारस भेजने का संकल्प कर लिया।
कलिंगदेश में यवन नाम का राजा राज्य करता है। वह बड़ा पराक्रमी है। उसने जब ये समाचार सुने तो वह बड़ा गुस्से हुआ और अपनी सभा में बोला- 'भेट ग्रहण करने की शक्ति मेरे सिवा इस भरतखंड में दूसरे किस राजा में है? पार्श्वकुमार कौन है जो प्रभावती को ग्रहण करेगा और कुशस्थलपति की क्या मजाल है कि वह प्रभावती को पार्श्वकुमार के पास भेजेगा? सेनापति जाओ और कुशस्थल को घेर लो। अगर प्रभावती बनारस भेजी जाय तो उसको पकड़कर मेरे पास भेज दो।' उसके सेनापति ने आकर कुशस्थल को घेर लिया। थोड़े दिन के बाद खुद राजा यवन भी आया और उसने कहलाया कि - 'या तो तुम प्रभावती को मेरे हवाले करो या लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। '
: श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 184 :