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सातवां भव (ललितांग देव) :
राजर्षि वज्रनाभ शुभ ध्यान पूर्वक आयु पूर्ण कर मध्यप्रैवेयक देवलोक में ललितांग नामक देव हुए। कमठ का जीव कुरंगक भील भी उम्रभर शिकार में जीवन बिता अशुभ ध्यान से मरा और रोरव नाम के सातवें नरक में नारकी हुआ। आठवां भव (सुवर्णबाहु) :
जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में पुराणपुर नाम का नगर है। उसमें इंद्र के समान प्रतापी कुलिशबाहु राजा राज्य करता था। उसकी सुदर्शना नाम की रानी के गर्भ में, वज्रनाम का जीव देवलोक से च्यवकर उत्पन्न हुआ। समय पर जन्म होने पर उसका नाम सुवर्णबाहु रखा गया। - जब सुवर्णबाहु जवान हुए तब उनके पिता कुलिशबाहु ने उन्हें राज्यगद्दी पर बिठाकर, दीक्षा ले ली। . एक दिन सुवर्णबाहु घोड़े पर सवार होकर फिरने निकला। घोड़ा बेकाबू हो गया और राजा को एक वन में ले गया। उसके साथी सब छूट गये। एक सरोवर के पास जाकर घोड़ा खड़ा हो गया। सुवर्णबाहु थक गया था। घोड़े से उतर पड़ा। उसने सरोवर से निर्मल जल पिया, घोड़े को पिलाया और तब घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर पास के बाग की शोभा देखने
लगा।
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उस बाग में एक तपस्वी रहते थे। उन्होंने हिरणों और खर्गोशों के बच्चे पाल रखे थे। वे इधर उधर किलोंले कर रहे थे। राजा को देखकर झोपड़ी की तरफ दौड़ गये। आश्रम के अंदर सुंदर पुष्पों के पौधे थे। उनमें यौंवनोन्मुखी कुछ कन्याएँ जलसिंचन कर रही थी। उन कन्याओं में एक बहुत ही सुंदरी थी। फिरते हुए सुवर्ण बाहु की नजर उस पर अटक गयी। वह एक वृक्ष की ओट में छिपकर उस रूपसुधा का पान करने लगा और सोचने लगा – 'यह अमृत का सरोत यहां कहां से आया? यह तापसकन्या तो नहीं हो सकती। यह कोई स्वर्ग की अप्सरा है या नागकन्या है?
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 179 :