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हजार राजकन्याओं के साथ ब्याह किया। २१ हजार वर्ष तक युवराज रहे। फिर उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उस चक्र के साथ चार सौ वर्ष घूमकर भरतखंड के छः खंडों को जीता। प्रभु २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती रहे।
फिर लौकांतिक देवों ने विनती की – 'हे प्रभु! भव्य जीवों के हितार्थ तीर्थ प्रवर्ताइए।' तब संवत्सरी दान दे, मृगसर सुदि ११ के दिन रेवती नक्षत्र में छ? तप युक्त, सहसाम्रवन में जाकर प्रभु ने दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक उत्सव किया। दूसरे दिन राजनगर के राजा अपराजिंत के यहां पर पारणा किया। फिर वहां से विहार कर तीन वर्ष बाद उसी उद्यान में आये। आम्रवृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान किया। कार्तिक सुदि १२. के दिन चंद्र रेवती नक्षत्र में था तब प्रभु को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया।
प्रभु के संघ में ३३ गणधर पचास हजार साधु, साठ हजार साध्वियां ६१० चौदह पूर्वधारी, २६०० अवंधिज्ञानी, २५५१ मनःपर्यय ज्ञानी, २८०० केवली, ७ हजार ३ सो वैक्रिय लब्धिवाले, १ हजार छ: सौ वादी, १ लाख ८४ हजार श्रावक और ३ लाख ७२ हजार श्राविकाएँ तथा षण्मुख नामक यक्ष और धारणी नाम की शासन देवी थी। .
मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखर पर आये। और एक मास का अनशन धारण कर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन चंद्र जब रेवती नक्षत्र में था, १ हजार मुनियों के साथ मोक्ष में गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक मनाया।
इनकी संपूर्ण आयु ८४ हजार वर्ष की थी। शरीर की ऊंचाई ३० धनुष की थी। कुंथुनाथजी के बाद हजार करोड़ वर्ष कम पल्योपम का चौथा अंश बीतने पर अरःनाथजी मोक्ष में गये।
अठारवें जिन अरनाथ की, माला फेरो नित नित जिन की । नाटक कूट पर सिद्ध अनेक है, नमन करत चरणे अनेक हैं।
: श्री अरनाथ चरित्र : 134 :