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पाकर उनके आनंद की सीमा न रही। लाखों का दान दिया, सारे कैदियों
को छोड़ दिया और जहां किसीको दुःखी-दरिद्र पाया उसे निहाल कर · दिया।
गजसुकुमाल युवा हुए। माता-पिता ने, उनकी इच्छा न होते हुए भी दो कन्याओं के साथ उनका ब्याह कर दिया। एक राजपुत्री थी। उसका नाम प्रभावती था। दूसरी सोमशर्मा ब्राह्मण की पुत्री थी। उसका नाम सोमा था। कुछ दिन के बाद नेमिनाथ भगवान का समवसरण द्वारका में हुआ। सभी यादवों के साथ गजसुकुमाल भी प्रभु को वंदना करने गये। देशना सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो आया और उन्होंने मातापिता की आज्ञा लेकर प्रभु से दीक्षा ले ली। [उनकी दोनों पत्नियों ने भी स्वामी का अनुसरण किया।]
जिस दिन दीक्षा ली थी उसी रात को गजसुकुमालं मुनि पास के श्मशान में जाकर ध्यानमग्न हुए।' सोमशर्मा किसी काम से बाहर गया हुआ था। उसने लौटते समय गजसुकुमल मुनि को देखा। उन्हें देखकर उसे बड़ा क्रोध आया, इस पाखंडी को दीक्षा लेने की इच्छा थी तो भी इसने शादी की और मेरी पुत्री को दुःख दिया। इसको इसके पाखंड का दंड देना ही उचित है। वह मसान में जलती हुई चिता में से मिट्टी के एक ठीकरे में आग भर लाया और वह ठीकरा गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख दिया। गजसुकुमाल का सिर जलने लगा; परंतु वे शांति से ध्यान में लगे रहे। इससे उनके कर्म कट गये। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी समय उनका आयुकर्म भी समाप्त हो गया और वे मरकर मोक्ष गये।
__ दूसरे दिन श्रीकृष्णादि यादव प्रभु को वंदना करने आये। गजसुकुमाल को वहां न देखकर श्रीकृष्ण ने उनके लिए पूछा। भगवान ने सारा हाल कह सुनाया। सुनकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। भगवान ने उन्हें समझाया – 'क्रोध करने से कोई लाभ नहीं है। मगर उनका क्रोध शांत न हुआ। जब वे वापिस द्वारका में जा रहे थे। तब उन्होंने सामने से सोमशर्मा को आते देखा। श्रीकृष्ण का क्रोध द्विगुण हो उठा। वे उसे सजा देने का विचार करते ही थे 1. किसी कथा में विहार कर आने के बाद काउस्सग का वर्णन है।
: श्री नेमिनाथ चरित्र : 168 :