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रंग, वही चाल, वही आवाज! देवकीजी से न रहा गया। उसने पूछा – 'मुनिराज! आप क्या रास्ता भूल गये हैं कि बार-बार यहीं आते हैं?'
उन्होंने कहा – 'हम तो पहली ही बार यहां आये हैं। देवकीजी को और भी आश्चर्य हुआ। वे बोली – 'तो क्या मुझे भ्रम हुआ है? नहीं भ्रम नहीं हुआ। वे भी बिलकुल तुम्हारे ही जैसे थे।' साधु बोले – 'हम छः भाई हैं। सभी एक से रूप रंगवाले हैं और सभी ने दीक्षा ले ली है। हमारे चार भाई पहले आये होंगे। इसलिए तुम्हें भ्रांति हो गयी है।' देवकीजी ने भगवान से उनका हाल पूछा। उन्होंने उनका हाल सुनाया। सुनकर देवकीजी को दुःख हुआ। वे रोने लगीं – 'हाय! मेरे कैसे खोटे भाग हैं कि मैं अपने एक भी बच्चे का पालना न बांध सकी। उनके बालखेल से अपने मन को सुखी न बना सकी।'
भगवान ने समझाया – 'खेद करने से क्या फायदा है? यह तो पूर्व भव की करणी का फल है। पूर्व भव में तुमने अपनी सौत के सात हीरे चुरा लिये थे। वह बेचारी कल्पांत करने लगी। जब वह बहुत रोयी पीटी तब तुमने उसे एक हीरा वापिस दिया। इसी हेतु से तुम्हारे सातों पुत्र तुमसे छूट गये। एक हीरा तुमने वापिस दिया था इसलिए तुम्हारा एक पुत्र तुमको मिला है।' देवकीजी अपने पूर्व भव के बुरे कर्मों का विचार कर मन ही मन दुःखी रहने लगी। - एक बार श्रीकृष्ण ने माता को उदासी का कारण पूछा। देवकीजी ने उदासी का कारण बताया और कहा – 'जब तक मैं बच्चे को न खिलाऊंगी तब तक मेरा दुःख कम न होगा।' श्रीकृष्ण ने माता को संतोष देकर कहां - 'माता कुछ चिंता न करो। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा।' ___. फिर श्रीकृष्ण ने हरीनैगमेषी देवता की आराधना की। देवता ने प्रत्यक्ष होकर कहा – 'हे भद्र! तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। तुम्हारी माता के गर्भ से एक पुत्र जन्मेगा; परंतु जवान होने पर वह दीक्षा ले लेगा।'
देवता चला गया। समय पर देवकीजी के गर्भ से एक पुत्र जन्मा। उसका नाम गजसुकुमाल रखा गया। मातापिता के हर्ष का ठिकाना न था। माता को कभी बालक खिलाने का सौभाग्य न मिला था। आज वह सौभाग्य
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 167 :