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खपाकर तीसरी नारकी के योग्य आयुकर्म बांधा है। उसे तुम भव के अंत निकाचित करोगे।'
श्रीकृष्ण बोले - 'मैं एक बार और वंदना करूं कि जिससे नरकायु के योग्य जो कर्म हैं वे सर्वथा नष्ट हो जायें ।' भगवान बोले- 'अब तुम जो वंदना करोगे वह द्रव्यवंदना होगी। फल भाववंदना का मिलता है द्रव्यवंदना का नहीं। तुम्हारे साथ वीरा जुलाहे ने भी वंदना की है, मगर उसको कोई फल नहीं मिला। कारण उसने वंदना करने के इरादे से वंदना नहीं की है; केवल तुम्हें खुश करने के इरादे से तुम्हारा अनुकरण किया है। श्रीकृष्ण अपने घर गये।
एक बार विहार करते हुए प्रभु गिरनार पर गये। वहां से रथनेमि आहारपानी लेने गये थे; मगर अचानक बारिश आ गयी और रथनेमि एक गुफा में चले गये। राजीमती और अन्य साध्वियां भी नेमिनाथ प्रभु को वंदन कर लौट रही थी; बरसात के कारण, सभी इधर उधर हो गयी। राजीमती उसी गुफा में चली गयी जिसमें रथनेमि थे। उसे मालूम नहीं था कि रथनेमि भी इसी गुफा में है। वह अपने भीगे हुए कपड़े उतारकर सुखाने लगी। रथनेमि उसे देखकर कामातुर हो गये और आगे आये। राजीमतीने पैरों की आवाज सुनकर झटसे गीला कपड़ा ही वापिस ओढ़ लिया। रथनेमि ने प्रार्थना की – 'सुंदरी ! मेरे हृदय में आगसी लग रही है। तुम तो सभी जीवों को सुखी करने का नियम ले चुकी हो। इसलिए मुझे भी सुखी करो।'
संयमधारिणी राजीमती बोली- 'रथनेमि ! तुम मुनि हो, तुम तीर्थंकर के भाई हो, तुम उच्च वंश की संतान हो, तुम्हारे मुख में ऐसे वचन नहीं शोभते। ये वचन तो पतित, नीच और असंयमी लोगों के योग्य हैं, ये तो संयम की विराधना करनेवाले हैं; ऐसे वचन उच्चारण करना और ऐसी घृणित लालसा रखना मानो अपने पशु स्वभाव का प्रदर्शन कराना है। मुनि! प्रभु के पास जाओ और प्रायश्चित लो। '
रथनेमि मोहमुग्ध हो गये थे। उन्हें होश आया। वे अपने पतन पर पश्चात्ताप कर राजीमती से क्षमा मांग प्रभु के पास गये। वहां जाकर उन्होंने
: श्री नेमिनाथ चरित्र : 170 :