________________
एक जिन - प्रतिमा बनवायी और धूम धाम से साधुओं के पास से उसकी प्रतिष्ठा करवायी। ..
सागरदत्त पूर्व में मिथ्यात्वी होने से पहले उसने नगर के बाहर एक शिव का मंदिर बनवाया था। एक बार उत्तरायण पर्व के दिन सागरदत्त वहां गया। उस मंदिर के पूजारी पूजा के लिए पहले के रखे हुए घी के घड़े जल्दी-जल्दी खींचकर उठा रहे थे। बहुत दिन तक एक जगह रखे रहने से घड़ों के नीचे जीव पैदा हो गये थे इसलिए उन्हें खींचकर उठाने से कीड़े मर जाते थे। और कई उनके पैरों के नीचे कुचले जाते थे। यह देखकर सागरदत्त उन कीड़ों को अपने कपड़े से एक तरफ हटाने लगा। उसे ऐसा करते देख एक पूजारी बोला – 'अरे तुझे इन सफेदपोश यतियों ने यह नयी शिक्षा दी है क्या?' और तब उसने पैरों से और भी कोई कीड़ों के कुचल दिया। सागरदत्त दुःखी होकर पूंजारियों के आचार्य के पास गया। आचार्य ने उस पाप की उपेक्षा की। तब सागरदत्त ने विचारा , यह भी निर्दयी है। ऐसे . गुरु की शिक्षा से दुर्गति में जाना पड़ेगा। ऐसा गुरु पत्थर की नाव है। आप संसार-समुद्र में डूबेगा और दूसरों को भी डुबायगा। यद्यपि उसकी शिव पर अश्रद्धा हो गयी थी तो भी वह लोकलाज से शिव-पूजा करता रहा। इस तरह श्रद्धा ढीली होने से उसे सम्यक्त्व न हुआ और वह मरकर घोड़ा हुआ है। मैं उसको बोध कराने के लिए ही यहां पर आया हूं। पूर्व भव में इसने दयामय धर्म पाला था इससे यह क्षणमात्र में धर्म पाया है।'
यह सुनकर राजा ने उस घोड़े को सवारी के बंधन से मुक्त कर दिया। उसी. समय मे भडूच शहर में अधावबोध नाम का तीर्थ हुआ।
- मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थ में वरुण नाम का यक्ष और वरदत्ता नाम की शासन देधी हुई। १८ गणधर, ३० हजार साधु, ५० हजार साध्वियाँ, ५०० चौदह पूर्वधारी, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनः पर्यवज्ञानी, १८०० केवली, २००० वैक्रिय लब्धिवाले, १२०० वादलब्धिवाले, १ लाख ७२ हजार श्रावक और ३ लाख ५० हजार श्राविकाएँ थी।
निर्वाण काल समीप जानकर प्रभु सम्मेद शिखर पर पधारे। और एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन धारण कर जयेष्ठ वदि ६ के
:: श्री तीर्थंकर चरित्र : 141 :