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सभी हितैषियों ने आकर रथ को घेर लिया। मातापिता रोने लगे। हितैषी समझाने लगे; मगर अरिष्टनेमि स्थिर थे। श्रीकृष्ण बाले 'भाई! तुम्हारी कैसी दया है? पशुओं की आर्त्तवाणी सुनकर तुमने उन्हें सुखी करने के लिए उनको मुक्त कर दिया; मगर तुम्हारे माता पिता और स्वजनसंबंधी रो रहे हैं तो भी उनका दुःख मिटाने की बात तुम्हें नहीं सूझती। यह दया है या दया का उपहास? पशुओं पर दया करना और मातापिता को रुलाना, यह दया का सिद्धांत तुमने कहां से सीखा ? चलो शादी करो और सबको सुख पहुंचाओ।'
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नेमिनाथ बोले – 'पशु चिल्लाते थे, किसी को बंधन में डाले बिना अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए और मातापिता रो रहे हैं, मुझे संसार के बंधनों में बांधने के लिए। हजारों जन्म बीत गये। कई बार शादी की, माता पिता को सुख पहुंचाया, स्वजन संबंधियों को खुश किया; परंतु सबका परिणाम क्या हुआ? मेरे लिये संसार भ्रमण। जैसे-जैसे मैं भोग की लालसा में फंसता गया, वैसे ही वैसे मेरे बंधन दृढ़ होते गये। और माता पिता ? वे अपने कर्मों का फल आप ही भोगेंगे। पुत्रों को ब्याह ने पर भी मातापिता दुःखी होते हैं, बली और जवान पुत्रों के रहते हुए भी मातापिता रोगी बनते हैं, एवं मौत का शिकार हो जाते हैं। प्राणियों को संसार के पदार्थों में न कभी सुख मिला है और न भविष्य में कभी मिलेगा ही । अगर पुत्र को देखकर ही सुख होता हो तो मेरें दूसरे भाई हैं। उन्हें देखकर और उनको ब्याह कर वे सुखी हों। बंधु! मुझे क्षमा करो। मैं दुनिया के चक्कर से बिलकुल बेजार हो गया हूं। अब मैं हरगिज इस चक्कर में न रहूंगा। मैं इस चक्कर में घुमानेवाले कर्मों का नाश करने के लिए संयमशस्त्र ग्रहण करूंगा और उनसे निश्चिंत होकर शिवरमणी के साथ शादी करूंगा।'
मातापिता ने समझ लिया – 'अब नेमिनाथ न रहेंगे। इनको रोक रखना व्यर्थ है। सबने रथ को रस्ता दे दिया। नेमिनाथ सौरिपुर पहुंचे। उसी समय लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की 'प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए । ' नेमिनाथ तो पहले ही तैयार थे। उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ कर दिया। इस तरफ जब राजीमती को यह खबर मिली कि नेमिनाथजी
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 163 :
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