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रह गयी केवल अरिष्टनेमि की त्रिभुवन-मन-मोहिनी मूर्ति। बरात महल के पास आती जा रही थी और राजीमती का हृदय आनंद से उछल रहा था। उसी समय उसकी दाहिनी आंख और भुजा फड़की। राजीमती चौंक पड़ी मानो किसीने पीठ में मुक्का मारा हो। सखियां पास खड़ी थी। एक ने पूछा'बहन! क्या हुआ?' राजीमती ने गद्गद कंठ होकर कहा – 'सखि! दाहिनी
आंख और भुजा का फड़कना किसी अशुभ की सूचना दे रहा है। मेरा शरीर भय के मारे पानी-पानी हुआ जा रहा है।' सखियों ने सांत्वना दी - 'अभी थोड़ी ही देर में शादी हो जायगी। बहन घबराओ नहीं। आंख तो वादी से फड़कने लगी है। चलो अब नीचे चलें। बारात बिल्कुल पास आ गयी है।' राजीमती बोली – 'ठहरो, बारात को और पास आ जाने दो; तब नीचे चलेंगी।' राजीमती फिर बरात की ओर देखने लगी। .
नेमिनाथ का रथ ज्योंही महल के पास पहुंचा त्योंही उनके कानों में पशुओं का आनंद पड़ा। वे चौंककर इधर-उधर देखने लगे और बोले - 'सारथी! पशुओं की यह कैसी आवाज आ रही है?' सारथी ने जवाब दिया'यह पशुओं का आर्तनाद है। ये कह रहे हैं, हे द्रयालु! हमें छुड़ाओ! हमने किसीका कोई अपराध नहीं किया। क्यों बेफायदा हमारे प्राण लिये जाते हैं?' नेमिनाथजी ने पूछा – 'इनके प्राण क्यों लिये जायेंगे?' सारथि ने जवाब दिया-'आपके बरातियों के लिए इनका भोज़न होगा।'
'क्या कहा? मेरे ही कारण इनके प्राण लिये जायेंगे? ऐसा नहीं हो सकता।' कहकर उन्होंने अपना रथ पशुशाला की तरफ घुमाने का हुक्म दिया।' सारथी ने रथ पशुशाला में पहुंचा दिया। नेमिनाथजी रथ से उतर पड़े और उन्होंने पशुशाला का पीछे का फाटक खोल दिया। पशु अपने प्राण लेकर भागे। क्षणभर में पशुशाला खाली हो गयी। सभी स्तब्ध होकर यह घटना देखते रहे।
नेमिनाथजी पुनः रथ पर सवार हुए और हुक्म दिया – 'सौरीपुर चलो। शादी नहीं करूंगा।' सारथी यह हुक्म सुनकर दिग्मूढ़ सा हो रहा। फिर आवाज आयी – 'रथ चलाओ! क्या देखते हो?' सारथी ने लाचार होकर रथ हांका। समुद्र विजयजी, माता शिवादेवी, बंधु श्रीकृष्ण और दूसरे
: श्री नेमिनाथ चरित्र : 162 :