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उन्होंने अपने पुत्रों से, जिनकी आयु के अठारह लाख पूर्व समाप्त हो गये थे, कहा – 'पुत्रो! हम अब मोक्ष साधन करना चाहते हैं। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ हम भली प्रकार साध चुके। इसलिए तुम यह राज्य-भार ग्रहण करो। [अजित राजा हुए और सगर युवराज होकर रहे।] हमें दीक्षा स्वीकार करने की अनुमति दो।'
.. अजितनाथ बोले – 'हे पिताजी! आपकी इच्छा शुभ है। अगर भोगावली कर्म का विघ्न बीच में न आता तो मैं भी आपके साथ ही संयम ग्रहण कर लेता। पिता के मोक्ष-पुरुषार्थ साधन में अगर पुत्र बाधक बने तो वह पुत्र, पुत्र नहीं है। मगर मेरी इतनी प्रार्थना है कि, आप मेरे चाचाजी को यह भार सोंपिए। मेरे सिर यह भार न रखिए।'
सुमित्र बोले - 'मैं संयम ग्रहण करने के शुभ काम को नहीं छोड़ सकता। राज्य-भार मेरे लिये असह्य है।'
अजितकुमार – 'यदि आप राज्य ग्रहण नहीं करना चाहते हैं तो घर ही में भावयति होकर रहिए। इससे हमें सुख होगा।' - राजा बोला – 'हे बंधु! तुम आग्रह करनेवाले अपने पुत्र की बात मानो। जो भाव से यति-साधु होता है वह भी यति ही कहलाता है। और तुम्हारा यह बड़ा पुत्र तीर्थंकर है, इसके तीर्थ में तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। दूसरा पुत्र चक्रवर्ती है। इन्हें धर्मानुकूल शासन करते देखकर तुम्हें अत्यंत प्रसन्नता होगी।'
___ यद्यपि सुमित्र की दीक्षा लेने की बहुत इच्छा थी, तथापि उन्होंने अपने ज्येष्ठ बंधु की आज्ञा मानकर भावयति रूप से घर ही में रहना स्वीकार कर लिया। सत्य है - ' सत्पुरुष अपने गुरुजन की आज्ञा को कभी नहीं टालते।'
जितशत्रु राजा ने प्रसन्न होकर बड़े समारोह के साथ अजितकुमार का राज्याभिषेक किया। सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। भला विश्वरक्षक स्वामी प्राप्त कर किसको प्रसन्नता न होगी? फिर अजितकुमार ने सगर को युवराज पद दिया।
जितशत्रु राजा ने दीक्षा ग्रहण की। बाह्य और अंतरंग शत्रुओं को
: श्री अजितनाथ चरित्र : 50: