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हों वे ही सच्चे गुरु होते हैं। जो दुर्गति में पड़ने से जीवों को बचाता है वह धर्म है। यह संयमादि दश प्रकार का है।' स्त्री ने फिर कहा – 'शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता ये पांच लक्षण सम्यक्त्व को पहचानने के हैं।'
स्त्री की बातें शुद्धभट के हृदय में जम गयी। उसने कहा – 'प्रिये! तुम भाग्यवती हो कि, तुम्हें चिंतामणी रत्न के समान सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है।'
शुद्ध भावना भाते और कहते हुए शुद्धभट को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी। दोनों श्रावक-धर्म का पालन करने लगे।
अग्रहार के अन्यान्य ब्राह्मण इनका उपहास करने लगे और तिरस्कार पूर्वक कहने लगे कि – 'ये कुलांगार कुलक्रमागत धर्म को छोड़कर श्रावक हो गये हैं। मगर इन्होंने किसी की परवाह न की। ये अपने धर्म पर दृढ़ रहे।
एक बार सरदी के दिनों में ब्राह्मण चौपाल में बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे। शुद्धमट भी अपने पुत्र को गोद में लेकर फिरता हुआ उधर चला गया। उसको देखकर सारे ब्राह्मण चिल्ला उठे, 'दूर हो! दूर हो! हमारे स्थान को अपवित्र न करो।'
. शुद्धभट को क्रोध हो आया और उसने यह कहते हुए अपने लड़के को आग में फेंक दिया कि यदि जैनधर्म सच्चा है और सम्यक्त्व वास्तविक महिमामय. है तो मेरा पुत्र अग्नि में न जलेगा। .
. . सब चिहुंक उठे और खेद तथा आक्रोश के साथ कहने लगे - 'अफसोस! इस दुष्ट ब्राह्मण ने अपने बालक को जला दिया।'
- वहां कोई सम्यक्त्वान् देवी रहती थी। उसने बालक को बचा लिया। उस देवी ने पहले मनुष्य भव में संयम की विराधना की थी, इससे मरकर वह व्यंतरी हुई थी। उसने एक केवली से पूछा था - 'मुझे बोधिलाभ कब होगा?' केवली ने उत्तर दिया था – 'तूं सुलभबोधि होगी, तुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए भली प्रकार से सम्यक्त्व की आराधना करनी पड़ेगी। तभी से देवी सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रयत्न में रहती थी। उस दिन सम्यक्त्व का प्रभाव दिखाने के लिए ही उसने बच्चे की रक्षा की थी।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 59: