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थे तब सारे नगर में अभिनंदन (हर्ष) ही अभिनंदन हुआ था इसलिए पुत्र का नाम अभिनंदन रखा।
. युवा होने पर राजा ने अनेक राजकन्याओं के साथ उनका ब्याह किया। साढ़े बारह लाख पूर्व तक उन्होंने युवराज की तरह संसार का सुख मोगा। फिर संवर राजा ने दीक्षा ली और अभिनंदन स्वामी को राज्यासन पर बिठाया। आठ पूर्वांग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व तक उन्होंने राज्य धर्म का पालन किया।
फिर जब उनको दीक्षा लेने की इच्छा हुई तब लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की – 'स्वामी! तीर्थ प्रवर्ताइये।' तब सांवत्सरिक दान देकर महा सुदि १२ के दिन अभिचि नक्षत्र में सहसाम्र वन में छ? तप सहित प्रभु ने दीक्षा ली। इंद्रादिदेवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन प्रभु ने इंद्रदत्त राजा के घर पारणा किया। अनेक स्थानों पर विहार करते हुए प्रभु फिर से सहसाम्रवन में आये। वहां छ? तप करके रायण (खिरणी) के झाड़ के नीचे काउसग्ग किया। शुक्ल ध्यान करते हुए उनके घातिया कर्मों का नाश हुआ और पोष सुदि १४ के दिन अमिचि नक्षत्र में उनको केवलज्ञान हुआ।
इंद्रादि देवों ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने सिंहासन पर बैठकर देशना दी और उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवमय त्रिपदी की व्याख्या की। उसीके अनुसार गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की।
___ अभिनंदन प्रभु के तीर्थ में यक्षेश्वर नाम का यक्ष और कालिका नाम की शासन देवी हुई। .
क्रमशः अभिनंदन नाथ के संघ में, एकसो सोलह गणधर, तीन लाख साधु, छः लाख तीस हजार साध्वियां, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, एक हजार पांच सौ चौदह पूर्वधारी, ग्यारह हजार छ: सौ पचास मनः पर्यवज्ञानी, चौदह हजार केवलज्ञानी, ग्यारह हजार वाद लब्धिवाले, दो लाख अठासी हजार श्रावक और पांच लाख सत्ताईस हजार श्राविकाएँ, इतना परिवार हुआ।
प्रभु केवल ज्ञान अवस्था में आठ पूर्वांग और अठारह वर्ष कम लाख
:: श्री अभिनंदन स्वामी चरित्र : 68 :