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राजा के मुख से अपना पूर्वभव सुना कि, पहले वे एक सेठ के पुत्र थे। दोनों एक रत्न के लिए लड़े और लड़ते लड़ते आर्तध्यान से मरकर ये पक्षी हुए हैं। यह सुनकर दोनों ने अनशन धारण किया और मरकर देवयोनि पायी।
एक बार मेघरथ ने अष्टम तप करके कार्योत्सर्ग धारण किया। रात के समय ईशानेन्द्र ने अपने अंतःपुर में बैठे हुए 'नमो भगवते तुभ्यं' कहके नमस्कार किया। इंद्राणियों के पूछने पर कि आपने अभी किसको नमस्कार किया है? इंद्र ने जवाब दिया – 'पुंडरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ ने अष्टम तप कर अभी कार्योत्सर्ग धारण किया है। वह इतना दृढ़ मनवाला है कि, दुनिया का कोई भी प्राणी उसे अपने ध्यान से विचलित नहीं कर सकता।' _ इंद्राणियों को यह प्रशंसा असह्य हुई। वे बोली – 'हम जाकर देखती हैं कि, वह कैसा दृढ़ मनवाला है।' इंद्राणियों ने आकर और देवमाया । फैलाकर मेघरथ को ध्यान से चलित करने की, रातभर अनेक कोशिशें की, अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग किये; परंतु राजा अपने ध्यान से न डिगा। सूर्य उदित होनेवाला है यह देख इंद्राणियों ने अपनी माया समेट ली और ध्यानस्थ राजा को नमस्कार कर उससे क्षमा मांगी, फिर वे चली गयी।
ध्यान समाप्त कर राजा ने दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर लिया। एक बार घनरथ प्रभु विहार करते हुए उधर आये। मेघरथ ने अपने पुत्र मेघसेन को राज्य देकर दीक्षा ले ली। उनके भाई दृढ़रथ ने, उनके सात सौ पुत्रों ने
और अन्य चार हजार राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली। मेघरथ मुनि ने बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया। अंत में, मेघरथ और दृढ़रथ मुनि ने अखंड चारित्र पाल, अंबर तिलक पर्वत पर जाकर अनशन धारण किया। ग्यारहवां भव :____ आयुपूर्ण कर मेघरथ और दृढ़रथ मुनि सर्वार्थसिद्ध देवलोक में देवता हुए और वहां पर तैंतीस सागरोपम की आयु सुखं से बितायी।
: श्री शांतिनाथ चरित्र : 126 :