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१७. श्री कुन्थुनाथ चरित्र
श्रीकुन्थुनाथो भगवान्, सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरतूनाथाना, - मेकनाथोस्तु वः श्रिये ॥
भावार्थ - जिसको चौतीस अतिशयों की ऋद्धि प्राप्त है और जो इंद्रों और राजाओं के नाथ हैं वे श्रीकुन्थुनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करें। प्रथम भव : -
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में आवर्त नामक देश है। उसमें खड्गी नाम की नगरी थी। उसका सिंहावह नाम का राजा था। संसार से वैराग्य होने के कारण उसने संवराचार्य के पास दीक्षा ले ली। बीस स्थानक की आराधना . कर उसने तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव :__अंत में आयुपूर्ण कर वह सर्वार्थसिद्ध विमान में अहमिन्द्र देव हुआ। तीसरा भव :
भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर का राजा वसु था। उसकी श्री नामकी रानी थी। वहां से च्यवकर सिंहावह का जीव श्री रानी के गर्भ में दो बार चौदह स्वप्न से सूचित श्रावण वदि ६ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया।
. समय पूरा होने पर वैशाख वदि १४ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में बकरे के चिह्नयुक्त, स्वर्णवर्णवाले, पुत्र को रानी ने जन्म दिया। बालक का नाम कुंथुनाथ रखा गया। कारण - गर्भ समय में रानी ने कुंथु नामक रत्नसंचय को देखा था। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया।
यौवनावस्था प्राप्त होने पर माता-पिता के अत्याग्रह से अनेक राज कन्याओं से कुंथुनाथ ने ब्याह किया। २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 131 :