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एक बार राजा घनरथ अपने अंतःपुर में आनंदविनोद कर रहा था। उस समय सुसीमा नाम की एक वेश्या आयी। उसके पास एक मुर्गा भी था। वह बोली – 'महाराज! मेरा यह मुर्गा अजित है। आज तक किसी के मुर्गे से नहीं हारा। अगर किसी का मुर्गा मेरे मुर्गे को हरा दे तो मैं उसको एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दूं।' ___राणी मनोरमा बोली – 'स्वामीन! मैं इससे बाज़ी की बात तो नहीं करती परंतु इसका घमंड तोड़ना चाहती हूं। इसलिए अगर आज्ञा हो तो मैं अपना मुर्गा इसके मुर्गे से लड़ाऊ।' -
___ राजा ने आज्ञा दी। मनोरमा ने अपना मुर्गा मंगवाया। दोनों मुर्गे लड़ने लगे। बहुत देर तक किसी का मुर्गा नहीं हारा। यद्यपि दोनों चौंचों की
और ठोकरों की चोटों से लहू लुहान हो गये थे तथापि एक दूसरे पर बराबर प्रहार कर रहे थे। कोई पीछे हटना नहीं चाहता था। राजा ने कहा – 'इनमें से कोई किसी से नहीं हारेगा। इसलिए इन्हें छुड़ा दो।'
तब मेघरथ ने पूछा – 'इनकी हारजीत कैसे मालूम होगी?' त्रिज्ञानज्ञ राजा ने जवाब दिया - 'इनकी हारजीत का निर्णय नहीं हो सकेगा। इसका कारण तुम इनके पूर्वभव का हाल सुनकर भली प्रकार से कर सकोगे। सुनो
रत्नपुर नगर में धनवसु और दत्त नाम के दो मित्र रहते थे। वे गरीब थे, इसलिए धन कमाने की आशा से बैलों पर माल लादकर दोनों चले। रस्ते में बैलों को अनेक तरह की तकलीफें देते और लोगों को ठगते वे एक शहर में पहुंचे। वहां कुछ पैसा कमाया। महान लोभी वे दोनों किसी कारण से लड़ पड़े और एक दूसरे के महान शत्रु हो गये। आखिर आर्तध्यान में वैरभाव से मरकर वे हाथी हुए। फिर मैंसे हुए, मेंढे हुए और अब ये मुर्गे हुए हैं।'
अपने पूर्व जन्म का हाल सुनकर मुर्गों को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उन्होंने वैर त्यागकर अनशन व्रत लिया और मरकर अच्छी गति पायी।
राजा घनरथ ने पुत्र मेघरथ को राज्य देकर वरसीदान देकर दीक्षा
: श्री शांतिनाथ चरित्र : 122 :