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नगरी थी। इस नगरी में स्तिमितसागर नामक राजा राज्य करता था। उसकी वसुंधरा और अनुद्धरा नाम की दो रानियां थी। रात को वसुंधरा देवी ने बलदेव के जन्म की सूचना देनेवाले चार स्वप्न देखे। पूर्व जन्म के अमिततेज राजा का जीव नंदितावर्त्त विमान से च्यवकर उनकी कोख में आया।
गर्भ समय पूर्ण होने के बाद महादेवी के गर्भ से, श्रीवत्स के चिह्नवाला, श्वेतवर्णी एवं पूर्ण आयुवाला, एक सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम अपराजित रखा गया।
- इधर अनुद्धरा देवी की कोख से, पूर्व जन्म के विजय राजा का जीव आया। उसी रात को महादेवी ने वासुदेव के जन्म की सूचना करनेवाले सात महास्वप्न देखे। गर्भ का समय पूरा होने के बाद शुभ दिन, महादेवी अनुद्धरा के गर्भ से, श्यामवर्णी एक सुंदर बालक का जन्म हुआ। राजा ने जन्मोत्सव करके उसका नाम अनंतवीर्य रखा।
एक समय शुभा नगरी के उद्यान में स्वयंप्रभ नामक एक महामुनि आये। राजा स्तिमितसागर उस दिन फिरता हुआ उसी उद्यान में जा निकला। वहां महा मुनि के दर्शन कर राजा को आनंद हुआ। मुनि ध्यान में बैठे थे। इसलिए राजा उनको तीन प्रदक्षिणा दे, हाथ जोड़ सामने बैठ गया। जब मुनि ने ध्यान छोड़ा तब राजा ने भक्तिपूर्वक उन्हें वंदना की। मुनि ने धर्मलाभ देकर धर्मोपदेश दिया। इससे राजा को वैराग्य हो गया। उसने अपनी राजधानी में जाकर अपने पुत्र अनंतवीर्य को राज्य दिया, फिर स्वयं प्रभु मुनि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की और चिरकाल तक चारित्र पाला। एक बार मन से चारित्र की विराधना हो गयी, इससे वह मरकर भुवनपति निकाय में चमरेन्द्र हुआ।
अनंतवीर्य ने जब से शासन की बागडोर अपने हाथ में ली, तब से वह एक सच्चे नृपति की तरह राज्य करने लगा। उसका भ्राता अपराजित भी राज्य कार्य में अनंतवीर्य का हाथ बंटाने लगा। एक समय कोई विद्याधर उनकी राजधानी में आ निकला। उसके साथ उन दोनों भाइयों की मैत्री हो
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 107 :