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विद्वान कपिल, निज शहर में, विद्वान होते हुए भी, अपना अपमान होता देख, वहां से विदेशों में चला गया। दासीपुत्र समझकर धरणीजट ने उसे जनेऊ न पहनायी, इसलिए उसने अपने आप यज्ञोपवीत धारण किया। चारों तरफ कपिल की विद्वत्ता की धाक बैठ गयी। जहां जाता वहीं के विद्वान लोग उसका आदर करते। कपिल फिरता-फिरता रत्नपुर नगर में पहुंचा। वहां सत्यकी नाम का एक ब्राह्मण रहता था उसके यहां अनेक विद्वान शिष्य पढ़ते थे। कपिल सत्यकी की पाठशाला में गया। शिष्यों ने उससे अनेक प्रश्न पूछे। कपिल ने सब का यथोचित उत्तर दिया। सत्यकी ने भी शास्त्रों के अनेक गूढाशय पूछे। कपिल ने सब का आशय भली प्रकार समझाया। इससे सत्यकी बड़ा खुश हुआ। उसने कपिल को, आग्रह करके अपने यहां रखा और अपनी शाला का मुख्य अध्यापक बना दिया। 'गुणों की कदर कहां नहीं होती?' सत्यकी का अपने पर प्रेम देख कपिल उसकी बड़ी सेवा करने लगा। उसके काम का सभी बोझा उसने उठा लिया।
- एक बार सत्यकी की पत्नी जंबूका ने कहा – 'देखिए, अपनी सत्यभामा अब जवान हो मयी है। इसलिए उसकी शादी का कहीं इंतजाम कीजिए। जिसके घर जवान कंन्या हो, कर्ज हो, वैर हो और रोग हो उसे शांति से नींद कैसे आ सकती है? मगर आप तो बेफिक्र है।'
सत्यकी ने जवाब दिया – 'मैंने इसके लिए योग्य वर ढूंढ लिया है। कपिल मेंरी निगाह में सब तरह से लायक है। अगर तुम्हारी सलाह हो तो सत्यभामा के साथ इसकी शादी कर दी जाय।'
जंबुका को यह बात ठीक लगी। यह उसके लिए और भी संतोष की बात हुई कि कपिल के साथ शादी होने से कन्या घर पर ही रहेगी। शुभ मुहूर्त में दोनों की शादी हो गयी। सुख से उनके दिन बीतने लगे। विद्वत्ता
और मिष्ट व्यवहार के कारण लोग उसको बहुत भेटे देने लगे। जिससे उसके पास धन भी काफी हो गया। कुछ समय के बाद उसके सास ससुर का देहांत हो गया। . एक बार कपिल कहीं नाटक देखने गया था। रात अंधेरी थी। जोर
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 97 :