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८. श्री चंद्रप्रभ चरित्र
चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला । मूर्तिर्मूर्तसितध्यान-निर्मितेव श्रियेस्तुवः ॥
भावार्थ - चंद्र किरणों के समूह जैसी घेत. और मानो मूर्तिमान अर्थात् साक्षात् शुक्ल ध्यान से बनायी हो ऐसी श्री चंद्रप्रभ स्वामी की शुक्लमूर्ति तुम्हारे लिये आत्म लक्ष्मी की वृद्धि करने वाली हो। ... सदैव संसेवनतत्परे जने, भवन्ति सर्वेऽपि सुराः सुदृष्टयः । समग्रलोके समचित्तवृत्तिना, त्वयैवसञ्जातमतो नमोऽस्तु ते ॥
भावार्थ - सभी देवता उन मनुष्यों पर कृपा करते हैं जो हमेशा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं; परंतु सभी लोगों पर (जो सेवा करते हैं उन पर भी और जो सेवा नहीं करते हैं उन पर भी) समान मनवाले (एकसी कृपा करनेवाले) तो आप ही हुए है। इसलिए हे चंद्रप्रभ भगवान! आपको मेरा नमस्कार हो। प्रथम भव :
धातकी खंड द्वीप में मंगलावती नाम की विजय है। उसकी प्रधान नगरी रत्नसंचयी है। उनका राजा पद्म था। कोई कारण पाकर उसको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने युगंधर मुनि के पास मुनिव्रत धारण किया। चिरकाल तक शुद्ध चारित्र को पाला और बीस स्थान की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। दूसरा भव :
आयु पूर्ण होने पर पद्मनाभ वैजयंत नामक विमान में देव हुआ। वहां के सुख भोगकर आयु पूर्ण किया। तीसरा भव :पद्मनाभ का जीव चंद्रपुरी का राजा महासेन की रानी लक्ष्मणा के
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