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९. श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ) चरित्र
करामलकवद्विश्चं, कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिबोधयेस्तु वः ॥
भावार्थ - जो अपनी केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से जगत को निर्मल जल की तरह जानते हैं और जो अचिन्त्य (जिसकी कल्पना भी न हो सके ऐसे) महात्म्य रूपी दौलतवाले हैं वे सुविधिनाथ तुम्हारे लिये बोध के कारण
हो।
प्रथम भव :- . .
पुष्करवर द्वीप में पुष्कलावती नामक विजय है। उसकी नगरी पुंडरीकिणी है। उस नगरी का राजा महापद्म था। वह संसार से विरक्त हो गया और जगन्नंद गुरु के पास उसने दीक्षा ले ली। वह एकावली आदि तप को करता था, इससे उसने तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। दूसरा भव :
· अंत में वह शुभ ध्यान पूर्वक आयु पूर्ण कर वैजयंत विमान में महर्द्धिक देव हुआ। तीसरा भव :
वहां के अनुपम सुखों को भोगकर महापद्म का जीव वैजयंत विमान से च्यवकर काकंदी नगरी के राजा सुग्रीव की रानी रामा के गर्भ में, फाल्गुन वदि ६ के दिन मूल नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक का उत्सव मनाया। क्रमशः गर्भ का समय पूर्ण होने पर महारानी रामा ने मार्गशीर्ष वदि ५ के दिन मूल नक्षत्र में मगर के चिह्न सहित, पुत्ररत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मोत्सव मनाया। गर्भ समय में माता सब विधियों में कुशल हुई थीं। इसलिए उनका नाम
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 81 :