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सुलक्षणा बेचारी बड़ी दुःखी हुई। मगर क्या करती? उसका कोई वश नहीं था। वह रो-रो कर अपने दिन निकालने लगी। .. . चौमासा निकट आया तब विपुला नामक साध्वीजी उसके घर चौमासा निर्गमन करने के लिए आयी। सुलक्षणा ने उन्हें रहने का स्थान दिया। साध्वी की संगति से सुलक्षणा का उद्वेगमय मन शांत हुआ और उसने सम्यक्त्व ग्रहण किया। साध्वी ने सुलक्षणा को धर्मशिक्षा भी यथोचित दी। चातुर्मास बीतने पर साध्वीजी अन्यत्र विहार कर गयी। सुलक्षणा धर्मध्यान में अपना समय बिताने लगी।
कुछ काल के बाद शुद्धभट द्रव्य कमाकर अपने घर आया। उसने पूछा- 'प्रिये! तुने मेरे वियोग को कैसे सहन किया?'
उसने उत्तर दिया – 'मैं आपके वियोग में रात-दिन रोती थी। रोने के सिवा मुझे कुछ नहीं सूझता था। अन्नजल छूट गया था। थोड़े जल की मछली की तरह तड़पती थी। दावानल में फंसी हुई हरिणी की तरह मैं व्याकुल थी। शरीर सूख गया था। जीवन की घड़ियां गिनती थी। ऐसे समय में विपुला नामक एक साध्वीजी चातुर्मास बिताने के लिए यहा आयी। उनका आना मेरे हृदयरोग को मिटाने में अमृतसम फलदायी हुआ। उन्होंने मुझे धर्मोपदेश देकर शांत कर दिया। समय पर उन्होंने मुझे सम्यक्त्व धारण कराया। यह सम्यक्त्व संसार-सागर से तैरने में नौका के समान है।'
ब्राह्मण ने पूछा – 'वह सम्यक्त्व क्या है?'
सुलक्षणा ने उत्तर दिया – 'सच्चे देव को देव मानना, सच्चे गुरु को गुरु मानना और सच्चे धर्म को धर्म मानना ही सम्यक्त्व है।'
शुद्धभट ने पूछा – 'अमुक सच्चा है, यह बात हम कैसे जान सकते हैं।'
सुलक्षणा ने उत्तर दिया – 'जो सर्वज्ञ हों, रागादि दोषों को जीतनेवाले हो और यथास्थित अर्थ को कहनेवाले हों; वे ही सच्चे देव होते हैं। जो महाव्रतों के धारक हों, धैर्यवाले हों, परिसहजयी हों, भिक्षावृत्तिं से प्रासुक आहार ग्रहण करनेवाले हों, निरंतर समभावों में रहनेवाले हों और धर्मोपदेशक
: श्री अजितनाथ चरित्र : 58 :