________________
एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में देते थे। इससे ज्यादा खर्च हो इतना याचक ही न आते थे और इससे कम भी कभी खर्च नहीं होता था। कुछ मिलाकर एक वर्ष में प्रभु ने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में दी थी।
जब दान देने का एक वर्ष समाप्त हो गया तब सौधर्मेन्द्र का आसन कांपा। उसने अवधिज्ञान द्वारा इसका कारण जाना। वह अपने सामानिक देवादि को साथ में लेकर प्रभु के पास आया। अन्यान्य इंद्रादि देव भी विनिता नगरी में आ गये। देवताओं और मनुष्यों ने मिलकर दीक्षा महोत्सव किया। प्रभु सुप्रभा नाम की पालखी में सवार कराये गये। बड़ी धमधाम के साथ पालखी रवाना हुई। लक्षावधी सुरनर पालखी के साथ चले। देवांगनाएँ और विनिता नगरी की कुल-कामिनियां, मंगल गीत गाती हुई पीछे-पीछे चलने लगी।
जुलूस अंत में 'सहसाम्रवन नामक उद्यान में पहुंचा। भगवान वहां पहुंचकर शिबिका से उतर गये। फिर शरीर पर से उन्होंने सारे वस्त्राभूषण उतार दिये और इंद्र का दिया हुआ अदूषित देवदूष्य वस्त्र धारण किया। उस दिन माघ महिना था, चंद्रमा की चढ़ती हुई कला का शुक्ल पक्ष था; नवमी तिथि थी; चंद्र रोहिणी नक्षत्र में आया था। उस समय सप्तच्छद वृक्ष के नीचे छट्ठ तप करके सायंकाल के समय प्रभु ने पंच मुष्टि लोच किया। इंद्र ने अपने उत्तरीय वस्त्र में केशों को लिया और उन्हें क्षीर समुद्र में पहुंचा दिया।
प्रभु सिद्धों को नमस्कार कर तथा सामायिक का उच्चारण कर, सिद्धशिला तक पहुंचाने योग्य दीक्षावाहन पर आरूढ़ हुए। उसी समय भगवान को मनःपर्यायज्ञान हुआ।
अन्यान्य एक हजार राजाओं ने भी उसी समय चारित्र ग्रहण किया।
__ अच्युतेन्द्रादि देवनायकों और सगरादि नरेन्द्रों ने विविध प्रकार से भक्तिपुरःसर प्रभु की स्तुति की। फिर इंद्र अपने देवों सहित नंदीश्वर द्वीप को
: श्री अजितनाथ चरित्र : 54 :